भारत का वो स्वर्णिम अतीत जब भारत हर चीज में दुनिया का सिरमोर था

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भारत स्वाभिमान के सभी सम्मान्नीय बहनों भाइयों, भारत देश का भूतकाल कैसा था, अतीत कैसा था, इसके बारे में मुझे आपसे कुछ बात कहनी है. पूज्य स्वामी जी का उसके लिए निर्देश है. मैं उसके लिए आपके सामने कुछ प्रमाण प्रस्तुत करूंगा, उन प्रमाणों के आधार पर हम सब उस बात का अंदाजा लगा लेंगे, आकलन कर लेंगे की भारत का अतीत कैसा था भारत का इक अतीत तो है जो बहुत पुराना है वेदों के समय का है वेद कालीन है और वह दसवीं शताब्दी तक चलता है वेदों के समय से ले कर दसवीं शताब्दी तक का, परम पूजनीय स्वामी जी ने उसके बारे में आपसे जरूर बात की होगी. मैं आपको भारत के उस अतीत के बारे में बात करूंगा जो अभी हाल में हमारे सामने रहा  १५० – २०० साल पहले तक अठारहवीं शताब्दी तक सत्रहवीं शताब्दी तक सोलहवीं शताब्दी तक, पंद्रहवीं शताब्दी तक माने आज से लगभग १०० – १५० साल पहले से शुरू कर के और पिछले हजार साल का जो भारत का इतिहास है कैसा है वह उसके बारे में थोड़ी सी बात करूंगा. और इक जानकारी आपको स्पष्टता के लिए देना चाहता हूँ, वह ये कि भारत के इतिहास पर भारत के अतीत पर दुनिया भर के २०० से ज्यादा विद्वान इतिहास विशेषज्ञों ने बहुत ज्यादा शोध किया बहुत शोध किया, और दुनिया भर के ये २०० से ज्यादा विद्वान शोधकर्ता इतिहास के विशेषज्ञ भारत के बारे में क्या कहते रहे है, इनमें से कुछ विशेषज्ञों की बात आपके सामने रखूंगा. सभी विशेषज्ञों का रखना बड़ा मुश्किल है क्योंकि २०० विशेषज्ञों का काफी समय जाएगा लेकिन उसमें से जो प्रमुख है मुख्य है वैसे ८ – १० विशेषज्ञों की बात आपके सामने रखूंगा, और ये सारे विशेषज्ञ भारत से बहार के है कुछ अंग्रेज है, कुछ सकोटीश है, कुछ अमरीकन है कुछ फ्रेंच है, कुछ जर्मन है. ऐसे दुनिया के अलग अलग देशों के विशेषज्ञों ने भारत के बारे में जो कुछ कहा है, लिखा है और उसके जो प्रमाण दिए है उन पर बात मुझे कहनी है

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सबसे पहले है इक अंग्रेज की जानकारी मैं आपको दूं उसका नाम है थामस बेव मैकाले, टी बी मैकाले जिसको हम कहते है. ये भारत में आया करीब १७ वर्ष देश में रहा सबसे ज्यादा जो अंग्रेज अधिकारी इस भारत में रहें उनमें से इसकी गिनती होती है मैकाले की और जब वह भारत में रहा तो भारत का काफी उसने प्रवास किया, यात्रा  की, उत्तर भारत में गया, दक्षिण भारत में गया, पूर्वी भारत में गया पश्चिमी भारत में गया और अपने सत्रह साल के भारत के प्रवास के बाद वह इंग्लैंड गया और इंग्लैंड की पार्लियामेंट में हाउस ऑफ कॉमन्स उसने इक लम्बा भाषण दिया उस भाषण का थोड़ा सा अंश परम पूजनीय स्वामी जी द्वारा लिखित जो पुस्तक है “शंखनाद” उसमें आप पढ़ सकते है, और वह अंश है और ये कह रहा है ब्रिटिश पार्लियामेंट के हाउस ऑफ कॉमन्स में “आई हेव ट्रावेल्ड लेंथ एंड ब्रेथ ऑफ दिस कंट्री इंडिया बट आई हेव नेवर सीन ए बेगर एंड थीफ इन दिस कंट्री इंडिया”. इसका मतलब क्या है ? वह ये कह रहा है की मैं सम्पूर्ण भारत में प्रवास कर चूका हु, उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम में मैं जा चूका हु, लेकिन मैंने कभी भी अपनी आँखों से भारत में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा – जो चोर हो, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा – जो बेरोजगार हो, एक भी व्यक्ति मैंने ऐसा नहीं देखा – जो गरीब हो, ये बात आप ध्यान दीजिएगा, वह २ फरवरी सन १८३५ को कह रहा है माने आज से अगर ये हम जोड़ेंगे तो लगभग १६०, १७० साल पहले वह ये बोल रहा है, कि एक भी व्यक्ति भारत में गरीब नहीं है, बेरोजगार नहीं है, चोर नहीं है. वह यह कह रहा है इसका माने की भारत में गरीबी नहीं थी बेरोजगारी नहीं थी और चोरी कोई क्यों करेगा जब कोई गरीब नहीं है, बेरोजगार नहीं है, फिर आगे के वाक्य में वह और बड़ी बात कह रहा है वह कह रहा है “आई हवे सीन सच वेल्थ इन दिस कंट्री इंडिया देट वी कैन नोट इमेजिन टू कोंक्वेर्ड टू दिस कंट्री इंडिया. वह कहता है की भारत में इतना धन और इतनी संपत्ति और इतना वैभव मैंने देखा है कि इन भारतवासियों को गुलाम बनाना बहुत मुश्किल काम है. ये आसन नहीं है. क्यों ? वह खुद कहता है कि जो लोग बहुत पैसे वाले होते है समृद्ध शाली होते है बहुत अमीर होते है वह लोग जल्दी किसी के गुलाम नहीं होते. इसलिए भारतवासी हमारे गुलाम हो जाएँगे ये मुझे बहुत मुश्किल लगता है , और फिर वह अगले भाषण में वह बहुत लम्बी बात कहता है भारत की शिक्षा, भारत की संस्कृति भारत की सभ्यता के बारे में. मैं उस बात को आगे नहीं ले जाना चाहता, फिर प्रमाण के रूप में २ फरवरी १८३५ को दिए गए उसके भाषण के ये २ – ३ वाक्य है, जो हमारे ध्यान में आने चाहिए कि भारत में एक अंग्रेज घूम रहा है और कह रहा है कही कोई गरीब नहीं है कोई बेरोजगार नहीं है किसी को चोरी करने की भारत में जरूरत नहीं है इसका माने भारत कुछ काफी समृद्ध शाली देश है फिर इसी भाषण के अंत में मैकाले एक वाक्य और कहता है उसको मैं सीधे सुनाता हु, वह कहता है कि भारत में जिस व्यक्ति के घर में भी मैं कभी गया तो मैंने देखा कि वहां सोने के सिक्कों का ढेर ऐसे लगा रहता है जैसे की चने का या गेहूँ का ढेर किसानों के घरों में रखा जाता है माने सामान्य घरों से ले कर विशिष्ट घरों तक सबके पास सोने के सिक्के इतनी अधिक मात्रा में होते है कि वह ढेर लगा कर उन सिक्को को रखते है. और वह कह रहा है कि भारतवासी कभी इन सिक्कों को गिन नहीं पाते क्योंकि गिनने की फुर्सत नहीं होती है इसलिए वह तराजू में तोल कर रखते है. किसी के घर में १०० किलो सोना होता है किसी के घर में २०० किलो होता है किसी के घर में ५०० किलो होता है इस तरह से सोने का हमारे भारत के घरों में भंडार भरा हुआ है, ये एक प्रमाण मैकाले का भाषण ब्रिटेन की संसद में २ फरवरी १८३५ को. इसके बाद इससे भी बड़ा एक दूसरा प्रमाण मैं आपको देता हु,

एक अंग्रेज इतिहासकार हुआ उसका नाम है विलियम डिग्बी, ये बहुत बड़ा इतिहासकार माना जाता है इंग्लैंड में, अंग्रेज लोग इसकी बहुत इज्जत करते है, इसका बहुत सन्मान करते है, और ना सिर्फ अंग्रेज इसका सन्मान करते है इज्जत करते है बल्कि  यूरोप के सभी देशों में विलियम डिग्बी का बहुत सन्मान है बहुत इज्जत है, अमरीका में भी इसकी बहुत सन्मान और बहुत इज्जत है कारण क्या है, विलियम डिग्बी के बारे में कहा जाता है की वह बिना प्रमाण के कोई बात नहीं कहता और बिना दस्तावेज के बिना सबूत के वह कुछ लिखता नहीं है. इसलिए इसकी इज्जत पूरे यूरोप और अमरीका में है. वह विलियम डिग्बी भारत के बारे में एक बड़ी पुस्तक लिखा है उस पुस्तक का एक थोड़ा सा अंश मैं सुनाता हु आपको. उसने तो ये अँग्रेज़ी में लिखा है मैं इसे हिंदी कर के बताता हु. विलियम डिग्बी कहता है की अंग्रेजो के पहले का भारत विश्व का सर्व सम्पन्न कृषि प्रधान देश ही नहीं बल्कि ये सर्वश्रेष्ठ औद्योगिक और व्यापारिक देश भी था अंग्रेजो से पहले का भारत खाली खेती वाला भारत नहीं था कृषि वाला भारत नहीं था वह औद्योगिक और व्यापारिक देश भारत था जो सर्वश्रेष्ठ था उसके शब्द पर गौर कीजिएगा वह कह रहा है सर्वश्रेष्ठ माने दुनिया में भारत के मुकाबले उस ज़माने में कोई भी देश नहीं था. और ये बात वह कब कह रहा है सत्रहवी शताब्दी में वह कह रहा है माने आज से अगर हम गिनना शुरु करे तो लगभग ३०० साल पहले के भारत के बारे में विलियम डिग्बी कह रहा है की सारी दुनिया के देशों में भारत औद्योगिक रूप से व्यापारिक रूप से और कृषि के रूप में सर्वश्रेष्ठ देश है माने कृषि उत्पादन हमारा सबसे अच्छा है औद्योगिक उत्पादन दुनिया में सबसे ज्यादा है और व्यापार भी हम दुनिया में सबसे ज्यादा करते है. उसके आगे वह कहता है कि भारत की भूमि इतनी उपजाऊ है जितनी दुनिया के किसी देश में नहीं फिर आगे कहता है  कि भारत के व्यापारी इतने ज्यादा होशियार है जो दुनिया के किसी देश में नहीं फिर वह आगे कहता है की भारत जो के कारीगर हाथ से जो कपड़ा बनाते है उनका बनाया हुआ कपड़ा रेशम का तथा अन्य कई वस्तुए पूरे विश्व के बाजार में बिक रही है और इन वस्तुओ को भारत के व्यापारी जब बेचते है तो बदले में इन वस्तुओ के वह सोना और चांदी की मांग करते है जो सारी दुनिया के दूसरे व्यापारी आसानी के साथ भारतवासिओ के व्यापारियो को दे देते है.

इस वाक्य को ठीक से समझिए वह कह रहा है की भारत का कपड़ा, भारत की अन्य वस्तुए दुनिया के बाजार में बिकती है और भारतवासी इनको सोने के बदले में बेचते है माने हम कपड़ा बेचते है तो सोना लेते है दूसरी वस्तुए बेचते है तो सोना लेते है. सोने के बदले में ही भारत के व्यापारी इन वस्तुओ का विनिमय दूसरों से करते है. क्योंकि ये वस्तुए सर्वश्रेष्ठ है और दुनिया में कोई भी दूसरा देश इनको बना नहीं सकता क्यों की इसकी कारीगरी और इनका हुनर सिर्फ भारत और भारत के ही पास है. फिर वह इसी में आगे कहता है कि भारत देश में इन वस्तुओ की उत्पादन के बाद की जो बिक्री की जो प्रक्रिया है वह दुनिया के दूसरे बाज़ारों पर निर्भर है. और ये वस्तुए जब दूसरे देशों के बाज़ारों में जब बिकती है तब भारत में सोना और चांदी ऐसे प्रवाहित होता है जैसे नदियों में पानी प्रवाहित होता है. और भारत की नदियों में पानी प्रवाहित हो कर जैसे महासागर में गिर जाता है वैसे ही दुनिया की तमाम नदियों का सोना चांदी भारत में प्रवाहित हो कर भारत के महासागर में आकर गिर जाता है. और वह अपनी पुस्तक में कहता है कि दुनिया के देशों का सोना चांदी भारत में आता तो है लेकिन भारत के बाहर १ ग्राम सोना और चांदी कभी जाता नहीं है. कारण क्या है ? वह कहता है की भारतवासी दुनिया में सारी वस्तुओ का उत्पादन करते है लेकिन वह कभी किसी से खरीदते कुछ नहीं है. मतलब सीधा सा ये है कि भारत आयात कुछ नहीं करता है इम्पोर्ट कुछ नहीं करता है जो भी कुछ है भारत वह सिर्फ एक्सपोर्ट और एक्सपोर्ट और निर्यात ही निर्यात करता है. इसका मतलब बहुत साफ है कि आज से ३०० साल पहले का भारत निर्यात प्रधान देश था एक भी वस्तु हम विदेशों से नहीं खरीदते थे. और वस्तुओ को बेच कर हम सोना चांदी सारी दुनिया से ले कर आते थे. विलियम डिग्बी जैसा एक बड़ा इतिहासकार हुआ वह फ़्रांस का हुआ उसका नाम है फ्रांस्वा पेरार्ड. फ्रांस्वा पेरार्ड ने १७११ में भारत के बारे में एक बहुत बड़ा ग्रंथ लिखा है. और उसमें उसने सेकड़ो प्रमाण दिए है. उस ग्रंथ में से एक छोटा सा प्रमाण मैं आपको प्रस्तुत करना चाहता हु. फ्रांस्वा पेरार्ड  अपनी पुस्तक में कहता है कि भारत देश में मेरी जानकारी में ३६ तरह के ऐसे उद्योग चलते है जिसमे उत्पादित होनेवाली हर वस्तु विदेशों में निर्यात होती है फिर वह आगे लिखता है kiकि भारत के सभी शिल्प एवं उद्योग उत्पादन में सबसे उत्कृष्ट, कलापूर्ण और कीमत में सबसे सस्ते है. सोना, चांदी, लोहा, इस्पात, तम्बा अन्य धातुए जवाहरात लकड़ी के सामान मूल्यवान दुर्लभ प्रदार्थ ये सब इतनी ज्यादा विविधता के साथ भारत में बनती है जिनके वर्णन का कोई अंत नहीं हो सकता. और जो सबसे महत्व की बात वह कह रहा है कि मुझे जो प्रमाण मिले है, फ्रांस्वा पेरार्ड अपनी पुस्तक में लिख रहा है कि मुझे जो प्रमाण मिले है उनसे ये पता चलता है कि भारत का निर्यात दुनिया के बाज़ारों में पिछले ३ हजार वर्षों से आबादित रूप से बिना रुके हुए लगातार चल रहा है. ये बात वह १७११ में लिख रहा है, और कह रहा है कि पिछले ३००० साल से भारत का निर्यात दुनिया के बाज़ारों में चल रहा है इसका माने आप इसका अंदाजा लगाइए, १७ वी शताब्दी में, उससे १ हजार साल पहले ७ वी शताब्दी में, और उससे १ हजार साल पहले, और उससे १ हजार साल पहले, अगर ये पूरी गणना हम करते जाए तो महात्मा बुद्ध के जन्म से लगभग पांच सौ वर्ष पहले, हमारे देश के तीर्थंकर महावीर स्वामी के जन्म से लगभग साढ़े छ सौ वर्ष पहले, भारत दुनिया के सभी देशों के बाज़ारों में सबसे ज्यादा निर्यात करने वाला देश है. ३००० साल की गिनती फ्रांस्वा पेरार्ड ने भारत के बारे में निकाली है. फिर उसके बाद एक स्कोटिश है, जिसका नाम है मार्टिन वह इतिहास की पुस्तक में भारत के बारे में कहता है, की  ब्रिटेन के निवासी, इंग्लैंड के निवासी जब बर्बर और जंगली जानवरों की तरह से जीवन बिताते रहे तब भारत में दुनिया का सबसे बेहतरीन कपड़ा बनता था और सारी दुनिया के देशों में बिकता था. और ये मार्टिन नाम का जो स्कोटिश हिस्टोरियन है ये कहता है कि मुझे ये स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है की भारतवासियों ने सारी दुनिया को कपड़ा बनाना और कपड़ा पहनना सिखाया है. और वह कहता है हम अंग्रेजो ने और अंग्रेजो के सहयोगी जातियों के लोगों ने भारत से ही कपड़ा बनाना सीखा है और पहनना भी सीखा है. फिर वह कहता है कि रोमन साम्राज्य में जितने भी राजा और रानी हुए है वह सभी भारत से कपड़े मँगवाते रहे है पहनते रहे है और उन्हीं से उनका जीवन चलता रहा है. एक फ़्रांसीसी इतिहासकार है १७५० में उसका नाम है टेवोर्निस वह क्या कह रहा है वह कह रहा है भारत के वस्त्र इतने सुन्दर और इतने हल्के है कि हाथ पर रखो तो पता ही नहीं चलता कि उसका वजन कितना है. सूत की महीन कताई मुश्किल से नजर आती है, भारत में कालीकट, ढाका, सूरत, मालवा में इतना महीन कपड़ा बनता है कि पहनने वाले का शरीर ऐसा दिखता है कि मनो वह एकदम नग्न है, माने कपड़े की बुनाई इतनी बारीक़ है कि अन्दर का शरीर भी उसमे से दिखाई देता है. वह कहता है इतनी अदभुत बुनाई भारत के कारीगर जो हाथ से कर सकते है वह दुनिया के किसी भी देश में कल्पना करना संभव नहीं है. फिर उसके बाद एक अंग्रेज है विलियम बांड वह कहता है की भारत में मलमल का उत्पादन इतना विलक्षण है, ये भारत के कारीगरों के हांथो का कमाल है. जब इस मलमल को खाट पर बिछा दिया जाता है और उस पर ऑस की कोई बूंद गिर जाती है तो वह दिखाई नहीं देती है क्योकि ऑस की बूंद में जितना पतला रंग होता है माने जितना हल्का रंग होता है उतना ही हल्का वह कपड़ा होता है. इसलिए ऑस की बूंद और कपड़ा आपस में मिल जाते है अलग अलग दिखाई नहीं देते इतनी बारीक़ बुनाई भारत के कपड़े की है. आपने बहूत बार इतिहास में एक वाक्य सुना होगा कि भारत में बनाया हुआ कपड़ा एक छोटे से अंगूठी से रिंग में से खिंच कर बाहर निकला जा सकता था. वो १३ – १४ मीटर का लम्बा थान होता था. वो वाक्य इसी इतिहासकार ने लिखा है जिसका नाम है विलियम बांड, वो ये कहता है की भारत का १३ गज का एक लम्बा कपड़ा हम चाहे तो एक छोटी सी रिंग में से पूरा खिंच कर बाहर निकल सकते है. इतनी बारीक़ और इतनी महीन बुनाई भारत के कपड़े की यहाँ पर होती है. फिर वो कहता है कि भारत का १५ गज का लम्बा थान आप गज तो समझते ही है मीटर से थोड़ा छोटा होता है. अगर १५ गज की मै बात करू तो वो लगभग १४ मीटर के बराबर बैठेगा. तो चोदह मीटर लम्बा थान या १५ गज का लम्बा थान वो कह रहा है कि उसका वजन सौ ग्राम से भी कम होता है. अब आप कल्पना करिए १५ गज का इतना बड़ा थान उसका वजन सौ ग्राम से भी कम होता है, वो कह रहा है कि मैंने बार बार भारत के कई थानों का वजन किया है हर एक थान का वजन सौ ग्राम से भी कम निकलता है. और कुछ थान का वजन तो ग्रेन में उसने तौला है, ग्रेन एक इकाई होती है, अंग्रेजी इकाई है. जैसे हम सुनार के पास जाते है न, सुनार सोने को तौलता है तो एक तौल होती है, जो १० ग्राम की होती है और एक तौल १० ग्राम से भी कम की होती है तो तौला जिसको हम कहते है न वो १० ग्राम का होता है. तौला से छोटी एक इकाई होती है जिसको रत्ती कहते है रत्ती, तो रत्ती १० ग्राम से भी छोटी होती है. तो वो विलियम बांड ये कह रहा है कि भारत के बहूत सारे थानों को मैंने तौला तो पता चला कि उनका कुल वजन लगभग १५ से २० रत्ती के आसपास है इतने कम वजन के भी कपड़े भारत में बनते है. और इतनी बारीक़ बुनाई भी होती है और कहता है विलियम बांड कि अंग्रेजो ने तो कपड़ा बनाना सन १७८० के बाद शुरु किया है भारत में तो पिछले ३००० साल से कपड़े का उत्पादन होता रहा है और सारी दुनिया में बिकता रहा है. एक और अंग्रेज अधिकारी का थोड़ा सा बताऊ थॉमस मुनरो नाम का एक अंग्रेज अधिकारी है वो मद्रास में गवर्नर रहा है, और लम्बे समय तक वो गवर्नर रहा है. गवर्नर रहते समय किसी राजा ने उसको एक शाल भेंट में दे दिया और जब उसकी नौकरी पूरी हो गयी थॉमस मुनरो की तो वो भारत से वापस लंदन चला गया. लंदन की संसद में उसने एक दिन अपना बयान दिया सन १८१३ में और वो कह रहा है कि भारत से मै एक शाल ले के आया, उस शाल को मै सात वर्षो से उपयोग कर रहा हु, उसको कई बार धोया है और प्रयोग किया है उसके बाद भी उसकी क्वालिटी एकदम बरक़रार है और उसमे कहीं कोई सिकुडन नहीं है, मैंने पुरे यूरोप में प्रवास किया है एक भी देश ऐसा नहीं है जो भारत की ऐसी क्वालिटी की शाल बना कर दे सके. भारत ने अपने वस्त्र उद्योग में सारी दुनिया का दिल जीत लिया है. भारत के वस्त्र अतुलित और अनुपमेय मानदंड के है, जिसमे सारे भारतवासी रोजगार पा रहे है और इस तरह से लगभग २०० इतिहासकार है सभी का बताना थोड़ा मुश्किल है. आप अंदाजा लगा सकते है कि फ़्रांसिसी इतिहासकार हो तो, स्कोटिश इतिहासकार हो तो, अंग्रेज इतिहासकार हो तो या इसके अलावा जर्मन का कोई या अमेरिका का कोई सारे इतिहासकार जो भारत के बारे में शोध करते है वो ये कहते है कि भारत के उद्योगों का और भारत की कृषि व्यवस्था का भारत के व्यापार  का सारी दुनिया में कोई मुकाबला नहीं है. अब इसके आगे एक छोटी सी जानकारी मै देना चाहता हु, अंग्रेजो की संसद में भारत के बारे में समय समय पर बहस होती रही है, तो सन १८१३ में भारत के बारे में एक बहस हो रही है और उस बहस के समय जो अंग्रेजी सांसद बात कर रहे है उनमे कई सारी रिपोर्ट है कई सारे सर्वे है, सर्वेछन है, जिनका हवाला दिया जा रहा है. तो ऐसी ही एक रिपोर्ट का हवाला मै आपके सामने रखता हु, अंग्रेजो की संसद में बहस हो रही है कि भाई भारत की आर्थिक स्थिति क्या है और कैसी है तो भारत की आर्थिक स्थिति के बारे में कहा जा रहा है कि सारी दुनिया में जो कुल उत्पादन होता है उसका ४३ प्रतिशत  उत्पादन अकेले भारत में होता है. आप जरा भारत के भूतकाल का अंदाजा लगाइए, अतीत का जरा अंदाजा लगाइए कि पूरी दुनिया में मान लीजिए १०० अरब का उत्पादन होता हो उस ज़माने में तो ४३ अरब डालर का उत्पादन अकेले केवल भारत में होता है. इसको एक दुसरे तरीके से समझने की कोशिश करे कि सारी दुनिया में अगर १०० रूपये का मॉल बनता है तो ४३ रूपये का मॉल अकेले भारत में बनता है अब आप जरा देखिये, दुनिया में २०० देश है. २०० देशो में कुल मिला कर उत्पादन है वो ५७ प्रतिशत है और भारत अकेले में जो कुल उत्पादन है वो ४३ प्रतिशत है माने सारी दुनिया के २०० देशो में से २ – ४ को छोड़ कर एक तरफ कर दें और भारत अकेला एक तरफ हो जाए तो कई देशो का उत्पादन भारत के अकेले उत्पादन के बराबर बैठता है. इतना बेहतरीन उत्पादन करने वाला ये देश रहा है और ये आंकड़ा सबसे पहली बार अंग्रेजो की संसद में सन १८१३ में कोट किया गया बाद में इसी आंकड़े को अंग्रेजो ने १८३५ में quoteकोट किया और १८४० में भी कोट किया और अंग्रेजो का ये कहना है कि १८४० तक भारत का उत्पादन सारी दुनिया में सबसे अधिक है और वो कुल दुनिया के उत्पादन का ४३ प्रतिशत है. अब मै थोड़ी तुलना करू तो आपको बात समझ में आएगी, आज अगर सारी दुनिया के कुल उत्पादन की बात जाये तो अमेरिका देश का कुल उत्पादन सारी दुनिया के कुल उत्पादन का लगभग २५ प्रतिशत है और थोड़ा आगे बढे तो अमेरिका के साथ चीन नाम के देश कुल उत्पादन पूरी दुनिया के उत्पादन का लगभग २३ प्रतिशत है, ये २३ प्रतिशत और २५ प्रतिशत चीन और अमेरिका दोनों मिल जाये तो इनका  लगभग कुल उत्पादन जो होता है उससे थोड़ा ही कम भारत का कुल उत्पादन रहा आज से लगभग पोने दो सौ वर्ष पहले तक माने आज की दुनिया में चीन और अमेरिका मिल कर जितना कुल उत्पादन करते है उतना उत्पादन लगभग उससे थोड़ा कम भारत करता रहा १८४० के साल तक. इतना बड़ा उत्पादक देश था भारत. फिर इसके बाद अंग्रेजो की संसद में और एक आंकड़ा भारत के बारे में कोट किया गया, कि सारी दुनिया के व्यापार में भारत का जो हिस्सा है. वो लगभग तैतालिस प्रतिशत है, इसका मतलब क्या हुआ, पूरी दुनिया में जो सामान बिक रहा है, निर्यात हो रहा है, उसमे भारत का निर्यात लगभग तैतीस प्रतिशत है. और ये आंकड़ा अंग्रेजो ने १८४० तक कोट किया है. माने सन १८४० तक सारी दुनिया के बाजार में भारत का मॉल तैतीस प्रतिशत बिकता है. अब आप सौ रुपिए का या सौ अरब डालर का निर्यात देखें पूरी दुनिया में तो तैतीस अरब डालर का निर्यात भारत का, सौ अरब डालर का उत्पादन देखें पूरी दुनिया में तो तैतालिस अरब डालर का उत्पादन भारत का, और इसी तरह से और एक आंकड़ा अंग्रेजो की संसद में भारत के बारे में कोट किया गया और वो आंकड़ा है कि सारी दुनिया की जो कुल आमदनी है, सकल जगत की जो कुल आमदनी है उस आमदनी का लगभग २७ प्रतिशत हिस्सा अकेले भारत का है तब आप कल्पना करिए, दुनिया की कुल आमदनी का २७ प्रतिसत हमारा हिस्सा, दुनिया के कुल निर्यात का ३३ प्रतिशत हमारा हिस्सा, और दुनिया के कुल उत्पादन का ४३ प्रतिशत हमारा हिस्सा, ऐसा बड़ा अदभुत उत्पादक, निर्यातक और व्यापारिक देश भारत रहा है सन १८४० तक. अब उस समय अमेरिका की बात करें तो १८४० में सारी दुनिया के निर्यात में अमेरिका का निर्यात जो है वो १ प्रतिसत से कम है सारी दुनिया के निर्यात में ब्रिटेन का निर्यात सन १८४० तक आधे प्रतिसत से कम है, और पुरे यूरोप का और अमेरिका का निर्यात इकठ्ठा कर दिया जाए तो सन १८४० तक सारी दुनिया के निर्यात में ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोप के सभी देशो के जोड़ दें, तो ३ से ४ प्रतिसत से ज्यादा निर्यात उनका नहीं निकलता है. तो एक तरफ यूरोप और अमेरिका है और एक तरफ अकेला भारत है, उनके २७ देशो को इकठ्ठा करें यूरोप और अमेरिका मिला कर तो ३ – ४ प्रतिशत निर्यात कर रहे है, अकेले भारत उस समय ३३ प्रतिशत निर्यात कर रहा है . और ये २७ देशो को इकठ्ठा कर दिया जाए, यूरोप और अमेरिका के साथ, तो उनका कुल उत्पादन दुनिया में १० से १२ प्रतिशत है और भारत का उत्पादन ४३ प्रतिशत है. और ये २७ देशो को अमेरिका के साथ इकठ्ठा कर दिया जाए यूरोप के तो उनकी कुल आमदनी दुनिया की आमदनी में ४ से ४.५ प्रतिशत है aurऔर भारत की कुल आमदनी २७ प्रतिशत है. इन आंकड़ो से आप अंदाजा लगा सकते है कैसा अदभुत उत्पादन करने वाला, कितना विशाल दुनिया के बाजार में निर्यात करने वाला देश ये भारत रहा है

थोड़ा आगे बढ़ता हू, शिक्षा व्यवस्था के बारे में, थोड़ी तकनीकी और विज्ञान की बातें, और थोड़ी सी कृषि व्यवस्था की बातें कर लेना चाहता हू, उद्योगों के साथ-साथ इस देश में विज्ञान और तकनिकी का भी बहुत विकास हुआ है. और हमारे अतीत के भारत की विज्ञान और तकनिकी के बारे में दुनिया भर के बहुत सारे शोधकर्ताओ ने बहुत सारी पुस्तके लिखी है. ऐसा ही एक अंग्रेज है जिसका नाम है जी डब्लू लिट्नेर वो भारत में कगी लम्बे समय तक रहा, और एक दूसरा अंग्रेज जिसका नाम थोड़ी देर पहले मैंने लिया थामस मुनरो, ये भी भारत में काफी दिनों तक रहा. ये दोनों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर बहुत ज्यादा काम किया है. एक और अंग्रेज है जिसका नाम है ???????????????टेंडरक्रस्ट उसने भारत की टेक्नोलोजी और विज्ञान पर बहुत ज्यादा कम किया है. और एक अंग्रेज है केम्पबेल कर के उसने भी भारत की विज्ञान और तकनिकी पर बहुत ज्यादा काम किया है. केम्पबेल का एक छोटा सा वाक्य मै आपको सुनाता हु वो ये कहता है “जिस देश में उत्पादन सबसे अधिक होता है, ये तभी संभव है जब उस देश में कारखाने हो, और कारखाने किसी देश में तभी संभव है, जब वहां पर कोई तकनीकी हो, टेक्नोलोजी हो, और टेक्नोलोजी किसी देश में तभी संभव है जब वहां पर विज्ञान हो. और विज्ञान किसी देश में मूल रूप से शोध के लिए अगर प्रस्तुत है तो उसमे से तकनीकी का निर्माण होता है. मतलब इस वाक्य को सरल तरीके से हम समझे कि मूल विज्ञान होता है जिसको हम आज की अंग्रेजी भाषा में फंडामेंटल साइंस कहते है फिर उसमे से एप्लाइड साइंस निकलता है वो प्रायोगिक विज्ञान होता है. और उस प्रायोगिक विज्ञान में से तकनीकी निकलती है और उस तकनीकी में से कारखाने निकलते है. और उन कारखानों से फिर उत्पादन होता है, वो उत्पादन फिर सारी दुनिया में बिकता है. तो ये बात अगर केम्पबेल कहता है कि भारत में टेक्नोलोजी हजारो सालो से रही है तो कारखाने भी रहे होंगे तो उसके बारे में जब खोज की गई तो पता चला के १८ वी सताब्दी तक इस देश में इतनी बेहतरीन टेक्नोलोजी रही है स्टील बनाने की जो दुनिया में कोई आज कल्पना नहीं कर सकता. स्टील बनाने की जो टेक्नोलोजी भारत में रही है, लोहा इस्पात बनाने की टेक्नोलोजी जो भारत में रही है, दुनिया में किसी देश के पास नहीं है. अंग्रेजो का ये जो अधिकारी है केम्पबेल वो ये कहता है कि भारत का बनाया हुआ लोहा, भारत का बनाया हुआ इस्पात, सारी दुनिया में सर्वश्रेष्ट माना जाता है. उसके बारे में वो एक मुहावरा दे रहा है और वो ये कह रहा है कि इंग्लैंड में या यूरोप में अच्छे से अच्छा जो लोहा बनता है वो भारत के घटिया से भी घटिया लोहे का भी मुकाबला नहीं कर सकता. ये केम्पबेल सन १८४२ में कह रहा है. वो ये कह रहा है कि इंग्लैंड और पुरे यूरोप में जो अच्छे से अच्छी जो स्टील बन रही है वो भारत की घटिया से भी घटिया स्टील का भी मुकाबला नहीं कर सकती. माने भारत की घटिया से घटिया स्टील भी इंग्लैंड और यूरोप की अच्छे से अच्छी स्टील से अच्छी है. उसके बाद एक जेम्स फ्रेंक्लिन नाम का अंग्रेज है बहुत बड़ा उसको जो है धातु कर्मी विशेषज्ञ माना जाता है. वो ये कहता है कि भारत का स्टील दुनिया दुनिया में सर्वश्रेष्ट है. यूरोप में सबसे अच्छा स्टील बनता है इस समय स्वीडन में लेकिन भारत का स्टील उससे कई गुना अच्छा है. भारत के कारीगर स्टील को बनाने के लिए भट्टिया तैयार करते है वो भट्टिया  जिनको हम अंग्रेजी में ब्लास्ट फर्नेस कहते है वो दुनिया में कोई नहीं बना पाता. वो कहता है कि इंग्लैंड में लोहा बनाना तो हमने १९२५ के बाद शुरु किया भारत में तो लोहा १० वी. सताब्दी से ही हजारो हजारो टन में बनता रहा है और दुनिया के देशो में बिकता रहा है. . वो ये कहता है कि में सन १७६४ में भारत से स्टील का एक नमूना ले के आया था मैंने इंग्लैंड के सबसे बड़े विशेषज्ञ डॉ. स्कॉट को स्टील दिया था, और उनको ये कहा था कि लन्दन रॉयल सोसाइटी की तरफ से आप इसकी जाँच कराइए डॉ स्कॉट ने भारत के उस स्टील की जाँच कराइ तो कहा कि ये भारत का स्टील इतना अच्छा है कि सर्जरी के लिए बनाए जाने वाले सारे उपकरण इससे बनाए जा सकते है. जो दुनिया में किसी दुसरे देश के पास उपलब्ध नहीं है. आप जानते है सर्जरी के लिए जो उपकरण बनाए जाते है चाकू बनाए जाते है, छुरिया बनाई जाती है, कैंचिया बनाई जाती है, टांका लगाने के लिए सुई बनाई जाती है. ऐसे १०० से ज्यादा उपकरण सर्जरी के लिए बनाए जाते है, तो डॉ. स्कॉट कह रहे है इस बात को १७६४ में कि दुनिया में किसी भी देश के पास सर्जरी के लायक बनाने वाला स्टील नहीं है, क्योकि उनकी क्वालिटी अच्छी नहीं है. लेकिन भारत का स्टील जो मेरे पास आया है, ये इतना अदभुत है कि इससे सर्जरी के सारे  उपकरण हम बना सकते है. फिर वो अंत में कह रहे है कि मुझे ऐसा लगता है कि भारत का ये स्टील हम पानी में भी डालकर रक्खे तो इनमे कभी जंग नहीं लगेगा, क्योकि इसकी क्वालिटी इतनी अच्छी है. आप जानते है कि लोहा या स्टील दुनिया में एक ऐसी वस्तु है जो थोड़ी देर के लिए भी पानी के संपर्क में आए, नमी के संपर्क में आए, तो सबसे पहले उसमे जंग लगती है जिसको हम सबलोग अंग्रेजी में रस्टिंग कहते है. लेकिन स्कॉट कह रहा है भारत के स्टील के बारे में कि मुझे लगता है कि इसको पानी में भी डालके रखे तो बिलकुल जंग नहीं लगेगी, इस क्वालिटी का स्टील भारत में बन रहा है.

अब इससे थोड़ा आगे चालू अगर स्टील इतनी अच्छी क्वालिटी का है तो एक अंग्रेज अधिकारी है उसका नाम है लेफ्टिनेंट कर्नल ए. वाकर, उसने भारत के शिपिंग इंडस्ट्री पर में सबसे ज्यादा रिसर्च किया है. वो ये कहता है कि भारत का जो अदभुत लोहा है, स्टील है ये जहांज बनाने के काम में बहूत ज्यादा आता है. और वो कहता है कि दुनिया में दुनिया में जहांज बनाने की सबसे पहली कला और सबसे पहली तकनिकी भारत में ही विकसित हुई है. और दुनिया के देशो ने पानी के जहांज बनाना भारत से सीखा है. और किसी देश के पास पानी का जहांज बनाने की तकनिकी उपलब्ध ही नहीं रही है. फिर वो कह्ता है कि भारत इतना विशाल देश है इसमें लगभग  २ लाख गाँव है, इन २ लाख गावों को समुद्र के किनारे स्थापित हुआ माना जाता है.  इन सभी गावों में जहांज बनाने का काम पिछले हजारों वर्षो से चलता है. वो ये कहता है कि हम अंग्रेज लोगों को जहांज खरीदना हो तो हम भारत में जाते है और वहां से जहांज खरीद कर लाते है. फिर वो अपने आगे अख रहा है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के जितने भी पानी के जहांज दुनिया में चल रहे है ये सारे के सारे जहांज भारत की स्टील से बने है.  ये बात मुझे कहते हुए शर्म आती है के हम अंग्रेज अभी तक इतनी अच्छी क्वालिटी का स्टील बनाना नहीं शुरु कर पाए है. फिर वो कहता है कि भारत का कोई पानी का जहांज जो पचास साल चल चूका है पानी में, उसको अगर हम खरीद ले अंग्रेज, और खरीदने के बाद उसको कंपनी की सेवा में लगाये तो पचास साल तो वो भारत में चल चूका है, हमारे यहाँ आने के बाद भी वो बीस पच्चीस साल और चल जाता है. इतनी मजबूत पानी के जहांज बनाने की कला और टेक्नोलोजी भारत के कारीगरों के हाँथ में है. और फिर वो वो कहता है के हम जितने धन में एक नया पानी का जहांज बनाते है, उतने ही धन में भारतवासी चार नए जहांज पानी के बना लेते है. फिर वो अंत में कहता है के हम भारत में पुराने पानी के जहांज ख़रीदे, और उसको ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में लगाए यही हमारे लिए अच्छा है. नया जहांज बना कर हम ईस्ट इंडिया कंपनी को दिवालिया नहीं कर सकते है, उसके पैसे बर्बाद नहीं कर सकते है. मतलब उसका कहने का ये है कि भारत का पुराने से पुराना पानी का जहांज अंग्रेजो के नए से नए पानी के जहांज से भी अच्छा माना जाता है. क्योंकि स्टील की क्वालिटी, लोहे की क्वालिटी इतनी जबरदस्त है.

और इसी तरह से वो कहता है कि भारत में टेक्नोलोजी के लेवल पर ईंट बनती है, ईंट से ईंट को जोड़ने का चूना बनता है.

और उसके अलावा भारत में ३६ तरह के दुसरे टेक्नोलोजिकल इंडस्ट्रीज है, ये सभी उद्योगों में भारत दुनिया में सबसे आगे है. इसलिए हमें भारत से व्यापार कर के ये सब sतकनिकी लेनी है, और इस तकनिकी को इंग्लैंड में ला कर फिर से उसको रिप्रोडूस करना है, पुनरुत्पादित करना है. तो भारत टेक्नोलोजी में बहूत ऊँचा है, और इसी तरह से विज्ञान में भी बहुत ऊँचा है. भारत के विज्ञान के बारे में एक दो नहीं बिसियो अंग्रेजो ने रिसर्च की है, शोध की है, और वो ये कहते है कि भारत में विज्ञान की बीस से ज्यादा शाखाए है, जो बहुत ज्यादा पुष्पित और पल्लवित हुई है. उनमे सबसे बड़ी शाखा है वो खगोल विज्ञान है, दूसरी बड़ी शाखा है वो नक्षत्र विज्ञान है, तीसरी बड़ी शाखा है बर्फ बनाने का विज्ञान है, चौथी बड़ी शाखा है और ऐसे कर कर के धातु विज्ञान है, फिर उसके बाद भवन निर्माण के विज्ञान की है. तो ऐसी बीस तरह की वैज्ञानिक शाखाए पुरे भारत में है. और बोकर लिख रहा है इस बात को कि भारत में ये जो विज्ञान की ऊँचाई है वो कितनी अधिक है, इसका अंदाजा हम अंग्रेजो को नहीं लगता एक बात आप सभी जानते है वो ये कि एक यूरोप का वैज्ञानिक हुआ उसका नाम है कोपरनिकस. कोपरनिकस के बारे में सारी दुनिया ये कहती है कि उसने पहली बार बताया कि सूर्य का पृथ्वी के साथ क्या सम्बन्ध है. पहली बार सारी दुनिया को पृथ्वी और सूर्य के अंतर संबंधो के बारे में बताने वाला यूरोप का वैज्ञानिक कोपरनिकस माना जाता है. और उस कोपरनिकस के बारे में ये भी कहा जाता है कि वो पहला यूरोपियन वैज्ञानिक है जिसने सूर्य से पृथ्वी का अनुमान लगाया फिर वो पहला वैज्ञानिक है जिसने सूर्य के उपग्रहों के बारे में जानकारी सारी दुनिया को दी. लेकिन इस कोपरनिकस की बात को अंग्रेज ही कह रहा है कि ये असत्य है झूठ है. वो ये कह रहा है बोकर के अंग्रेजो के हजारो साल पहले, यूरोपियन लोगो के हजारो साल पहले भारत में ऐसे विशेषज्ञ वैज्ञानिक हुए है जिन्होंने सूर्य की दुरी का ठीक ठीक पता लगाया है और भारत के शास्त्रों में उसको दर्ज कराया है. आप जानते है, हमारे वेदों में, यजुर्वेद में विशेष रूप से ऐसे बहुत सारे सूत्र है, श्लोक है, मंत्र है जिनसे बहुत सारा स्पष्ट ज्ञान मिलता है खगोल शास्त्र का. आपको सुन के हैरानी होगी कि कोपरनिकस का जिस दिन जन्म हुआ था यूरोप में, उससे ठीक लगभग १ हजार साल पहले एक भारतीय वैज्ञानिक ने पृथ्वी से और सूर्य की दुरी कितनी है ठीक ठीक नाप उन्होंने बता दिया था. और हमारे वैज्ञानिक का नाम था आर्यभट्ट. आप हैरान हो जाएँगे, कोपरनिकस ने जितनी दुरी नापी है मील में, वो सारी की सारी दूरी आर्यभट्ट ने कोपरनिकस के जन्म के हजार साल पहले नाप ली थी. और जितनी दूरी श्री आर्यभट्ट जी ने कह दी है उस दुरी में एक इंच इधर और उधर यूरोप का वैज्ञानिक कर नहीं पाया. वही दूरी आज यूरोप में मानी जाती है, अमेरिका में मानी जाती है, प्रमाणित है. तो आप अंदाजा लगाए कि जब इस देश में ऐसे वैज्ञानिक रहे है जिन्होंने धरती से सूर्य की दूरी नाप ली हो, और वो भी यूरोप से हजार साल पहले, तो आप अंदाज लगा सकते है की विज्ञान कितना विकसित रहा होगा इस देश में.

और आपको एक रोचक जानकारी देना चाहता हु के हमारे देश में ये जो खगोल विज्ञान है न, ये बहुत गहरा रहा है और इसी पर से नक्षत्र विज्ञान का विकास हुआ है. ये खगोल विज्ञान और नक्षत्र विज्ञान में शोध करने वाले वैज्ञानिको ने ही दिन और रात कितने बड़े होंगे १२ घंटे का दिन होगा १२ घंटे की रात होगी, १४ घंटे का दिन होगा या १० घंटे की रात होगी या १० घंटे का दिन होगा १४ घंटे की रात होगी, सर्दियों में अलग होगी, गर्मियों में अलग होगी, बरसात में कैसी होगी, ये सारे के सारे आंकड़े दिन और रात के समय के ये भारत के वैज्ञानिको के दारा निकले गए है, और सारी दुनिया में उसका प्रचार और प्रसार हुआ है. हम अभी दिन की गणना करते है कि आज हमारा दिन रविवार है दूसरा दिन सोमवार है तीसरा दिन मंगलवार है चौथा दिन बुधवार है पांचवा दिन गुरुवार है शुक्रवार है शनिवार है ये जो दिनों की हम गिनती करते है और इनके जो नाम जो हमने रखे हुए है वो रवि सोम मंगल बुध आपको शायद ये मालूम होगा नहीं तो मै कहना चाहता हु ये सारे दिनों का नामकरण और इनकी अवधि पूरी की पूरी महान महर्षि आर्यभट्ट की निकली हुई है. और उनके द्वारा ये दिन तय किए हुए है. और आपको सुनकर और हैरानी होगी अंग्रेज जो कि खगोलशास्त्री है और अंग्रेज जो नक्षत्रविज्ञानी है वो ये बात ईमानदारी से स्वीकार करते है कि भारत का रवि सोम मंगल बुध ही हमने ले लिया है और इसी को संडे, मंडे, ट्यूसडे, थर्सडे, फ्राईडे, सटरडे कर दिया है. ये सब कुछ भारत से उधार लिया हुआ है.

और आपको एक रोचक बात बताऊ पृथ्वी घुमती है अपने अक्ष पर, और सूर्य के चारो तरफ भी ये बात सबसे पहले भारतीय वैज्ञानिको ने प्रमाणित की थी १० वी. सताब्दी में. और पृथ्वी के घुमने से दिन रात होते है, मौसम और जलवायु बदलते है ये बात भी भारतीय वैज्ञानिको द्वारा प्रमाणित हुई है सारी दुनिया में. तो भारत के वैज्ञानिको ने खगोल शास्त्र में, नक्षत्र विज्ञान में जबरदस्त काम किया है. सूर्य है, सूर्य के कितने उपग्रह है और उन उपग्रहों का सूर्य के साथ अंतर सम्बंध क्या है, ये सारी खोज भारत में तीसरी सताब्दी के आस पास की है. जब दुनिया में कोई पढना लिखना भी नहीं जानता होगा, उस समय भारत में ये खोज चलती रही है, कि सूर्य क्या है, सूर्य के उपग्रह क्या है, उनके आपस के अंतर सम्बंध क्या है. तो खगोल शास्त्र की, नक्षत्र विज्ञान की विद्या बहुत अदभुत और बहुत ऊँची है.

एक अंग्रेज है उसका नाम है डेनिअल डिपो, वो ये कहता है कि ये भारत के वैज्ञानिक कितने ज्यादा पक्के है गणित में, कि चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण का ठीक ठीक पता बता देते है सालों पहले, आज के दिन चन्द्र ग्रहण होगा, आज के दिन सूर्य ग्रहण होगा, और इतने बज कर इतने मिनट पर होगा, ये भारत के वैज्ञानिक कई कई साल पहले बता देते है. १७०८ के समय ये लंदन की संसद में कह रहा है कि मैंने भारत का पंचांग जब भी पढ़ा है मुझे एक प्रश्न का उत्तर कभी नहीं मिला कि भारत के ऋषि, महर्षि, वैज्ञानिक कई कई साल पहले कैसे पता लगा लेते है कि आज चन्द्र ग्रहण पड़ेगा, आज सूर्य ग्रहण पड़ेगा, और इस समय पर पड़ेगा, और सही सही वोही समय पर पड़ता है. इसका माने भारत के वैज्ञानिको की नक्षत्रों के बारे में, खगोल विद्या के बारे में बहुत गहरी गहरी रिसर्च है, शोध है. ये इसी के आधार पर हो सकता है. तो इस तरह का भारत है.

और एक दो जानकारी दू शिक्षा के बारे में, कि भारत का अतीत अगर हमें अच्छे से समझना है तो kभारत की शिक्षा को समझना पड़ेगा. क्योकि साइंस और टेक्नोलोजी जो भी विकसित होती है, उसका आधार शिक्षा व्यवस्था होती है. किसी देश में खगोल शास्त्र अगर विकसित हुआ है तो उसका आधार भी शिक्षा व्यवस्था होती है. अगर नक्षत्र शास्त्र का विकास हुआ है तो उसका आधार भी शिक्षा व्यवस्था होती है. सभी विज्ञान की विधाओ का, और सभी तकनिकी की विधाओ का मूल आधार शिक्षा होती है. तो भारत में अगर विज्ञान इतना अच्छा है, तकनिकी इतनी अच्छी है तो शिक्षा भी कोई बहुत अच्छी ही रही होगी. बिना उसके तो विज्ञान, तकनिकी आ नहीं सकती, और बिना शिक्षा के उद्योग और व्यापार चल नही सकता. तो भारतीय शिक्षा के बारे सबसे पहला एक प्रमाण मै प्रस्तुत करना चाहता हु, एक जर्मन दार्शनिक हुआ, उसका नाम है मैक्स मुलर. ये मैक्स मुलर ने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर सबसे ज्यादा शोध कार्य किया है. और वो ये कहता है कि मै भारत की शिक्षा व्यवस्था से इतना प्रभावित हु, शायद ही दुनिया के किसी भी देश में इतनी सुंदर शिक्षा व्यवस्था होगी जो भारत में है और भारत के बंगाल राज्य के बारे में, मैक्स मुलर एक आंकड़ा दे रहा है, कि भारत का जो बंगाल राज्य है, बंगाल प्रान्त है, बंगाल प्रान्त आप जानते है ? भारत का एक प्रान्त है, और ये जब बंगाल की जो ये बात मैक्स मुलर कह रहा है, वो बंगाल है, जिसमे पूरा बिहार है, आधा ओरिसा है, आज का पूरा पश्चिम बंगाल है, और आसाम है, और आसाम के ऊपर के छोटे छोटे सात प्रदेश है. इस बंगाल राज्य के बारे में मैक्स मुलर कह रहा है कि मेरी जानकारी में ८०,००० से अधिक गुरुकुल पुरे बंगाल में सफलता के साथ पिछले हजारो साल से चल रहे है. ८०,००० गुरुकुल, ये मैक्स मुलर ने गिनती करवाई है, और सिर्फ एक राज्य के बारे में, एक राज्य है बंगाल.

इसी तरह से एक अंग्रेज विद्वान है, शिक्षाशास्त्री है, उसका नाम है लुद्लो, और लुद्लो आता है भारत में, और करीब सोलह सत्रह साल रहता है इस देश में. और सोलह सत्रह साल रह कर भारत में घुमा है. घुमने के बाद शिक्षा व्यवस्था पर उसने सर्वेक्षण किया है. वो क्या कह रहा है, वो कह रहा है कि भारत में एक भी गाँव ऐसा नहीं है, जहाँ कम से कम एक गुरुकुल नहीं है. कम से कम, माने हर गाँव में कम से कम एक गुरुकुल तो है ही. एक से भी ज्यादा है. फिर वो कह रहा है कि भारत के बच्चे एक भी ऐसे नहीं  है जो गुरुकुल में न जाते हों पढाई के लिए, माने सभी बच्चे गुरुकुल में जाते है पढाई के लिए. अब आप पूछेंगे कि ये लुद्लो किस समय की बात कर रहा है, ये लुद्लो १८ वी. सताब्दी की बात कह रहा है. ज्यादा पुरानी बात नहीं कह रहा है. उसके अलावा एक और अंग्रेज है जिसका नाम है जी. डब्लू. लिट्नेर, वो ये कहता है कि मैंने भारत के उत्तर वाले इलाके का पूरा सर्वेक्षण किया है शिक्षा का, और मेरे सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि भारत में २०० लोगों पर एक गुरुकुल चलता है. भारत में २०० लोगों पर एक गुरुकुल चलता है पुरे उत्तर भारत की रिपोर्ट में वो ये निष्कर्ष दे रहा है. और उत्तर भारत का मतलब क्या है, आज का पूरा का पूरा पाकिस्तान, आज का पूरा का पूरा पंजाब, आज का पूरा का पूरा हरियाणा, आज का पूरा का पूरा जम्मू कश्मीर, आज का पूरा हिमांचल प्रदेश. आज का पूरा का पूरा उत्तर प्रदेश, और आज का पूरा उत्तराखंड. ये सारा इलाका मिलकर उत्तर भारत है, और पुरे उत्तर भारत के बारे में लिट्नेर की रिपोर्ट है सन १८२२ की, उसमे वो कहता है, कि २०० लोगों पर कम से कम १ गुरुकुल पूरे उत्तर भारत में है. और इसी तरह से थॉमस मुनरो की रिपोर्ट है, वो ये कह रहा है कि दक्षिण भारत में ४०० लोगों पर कम से कम १ गुरुकुल भारत में है. अब ये उत्तर और दक्षिण को मिला दिया जाए तो सारे भारत के बारे में औसत निकला जाए. तो ये औसत निकलता है कि ३०० लोगों पर कम से कम एक गुरुकुल भारत में है. और जिस ज़माने में ये सर्वेक्षण हुआ है, उस ज़माने में भारत की जनसँख्या लगभग २० करोड़ के आस पास है. तो २० करोड़ की जनसंख्या में ३०० लोगों पर अगर एक गुरुकुल अगर आप निकालेंगे तो कुल २० करोड़ लोगों के ऊपर लगभग ७,३२००० के आस पास गुरुकुल निकलते है. माने सम्पूर्ण भारत देश में लगभग ७,३२००० गुरुकुल है सन. १८२२ के आस पास के ये आंकड़े है. इसका मतलब क्या है? आप और इस बात को हैरानी से समझने की कोशिश करिए कि सन. १८२२ में भारत में ७,३२००० अगर गुरुकुल है, तो गाँव कितने है? तो आपको मालूम है अंग्रेज दस दस वर्ष में भारत की जनसँख्या का सर्वेक्षण करते रहते थे, तो उस ज़माने के सर्वेक्षण से ये पता चला कि भारत में कुल गाँव की संख्या भी लगभग ७,३२००० ही है. माने जितने गाँव है, उतने ही गुरुकुल इस देश में है, माने हर गाँव में पढने के लिए पूरी की पूरी व्यवस्था है, आज की भाषा में कहें तो कम से कम एक स्कूल हर गाँव में है.

इसी रिपोर्ट में आगे चले तो और एक अदभुत बात पता चलती है. कि सन. १८२२ में भारत में तो हर गाँव में एक स्कुल है. तो इंग्लैंड की जरा बात करे, यूरोप की जरा बात करें, कि वहां कितने स्कुल है? और वहां कितने गाँव में कितने स्कुल है कितनी आबादी पे कितने स्कुल है?  तो अंग्रेजो के इतिहास के बारे में पता चलता है कि सन. १८६८ तक तो पूरे इंग्लैंड में सामान्य बच्चो को पढ़ाने के लिए एक भी स्कूल नहीं था १८६८ तक, और हमारे यहाँ १८२२ तक पुरे भारत देश में हर गाँव में एक गुरुकुल था, सामान्य बच्चो को पढाने के लिए. मतलब हमारी शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजो से बहुत बहुत बहुत आगे थी. और इसी जी. डब्लू. लिट्नेर रिपोर्ट में में मै आपसे आगे कहू, लिट्नेर कहता है कि सम्पूर्ण भारत देश में ९७ प्रतिशत साक्षरता की दर है, माने ९७ प्रतिशत भारतवासी सुशिक्षित है, साक्षर है. सिर्फ ३ प्रतिशत भारतवासी है जिनको पढने का कोई मौका शायद जीवन में नहीं मिला है. तो ९७ प्रतिशत साक्षरता है हमारे देश में. अब अगर आज के भारत की बात करें, २००९ के भारत की बात करे, तो आपको मालूम है, इस समय भारत में साक्षरता की दर पूरी ताकत लगा कर जब भारत देश में सर्व शिक्षा अभियान चल रहा है, ऊपर से निचे तक हजारों करोडो रूपये खर्च किये जा रहे है, तब हमारे देश में साक्षरता की दर मात्र ५० प्रतिसत पहुँच पाई है. १८२२ में हमारी साक्षरता की दर ९७ प्रतिशत रही है. माने हमारी शिक्षा व्यवस्था आज जो है, इससे कई गुना अच्छी अंग्रेजो के आने से पहले इस देश में रही है.

फिर भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में एक और अधूत बात है जो सारी दुनिया के लिए जानने योग्य है. भारत की शिक्षा व्यवस्था में क्या है, ये जो गुरुकुल है, इन गुरुकुलों को चलने के लिए कभी किसी राजा से कोई दान या अनुदान नहीं लिया जाता, ७,३२००० गुरुकुल इस देश में चलते है और किसी राजा से एक पैसा नहीं लिया जाता. ये सारे गुरुकुल समाज के द्वारा चलाए जाते है. आप बोलेंगे की समाज के द्वारा कैसे चलते है ? हमारे गाँव गाँव में जहाँ जहाँ गुरुकुल रहे है, वहां समाज के लोगों में गुरुकुल के लिए भूमि दान कर रखी है. और उस भूमि पर जितना उत्पादन होता है, उस उत्पादन की आय से गुरुकुल आराम से चलता है. जरुरत पड़े तो गाँव के लोग गुरुकुल के लिए दान इकठ्ठा करते है, और गुरुकुल उसका उपयोग करता है, तो सारे भारत के गुरुकुल साधारण लोगों के दान के पैसे से चलते है, राजा के पैसे से इस देश में एक भी गुरुकुल नहीं चलता है. ये सबसे महत्व की बात है जो सारी दुनिया को जानने के लिए है.

इसके अलावा भारत के गुरुकुलों में समय क्या है पढाई का? तो सूर्योदय से सूर्यास्त का, ये समय है पढाई का. हमारे यहाँ आजकल के जो स्कूल चलते है, वहां का समय है सुबह के १० बजे से दोपहर २ – ३  बजे तक, लेकिन हमारे प्राचीन गुरुकुलों में जो समय है वो सूर्योदय से ले कर सूर्यास्त तक, अब सूर्योदय से ले के सूर्यास्त तक जो विद्यार्थी है, वो क्या क्या पढ़ते है तो उनमे वो १८ विषय पढ़ते है. गणित पढ़ते है, जिसको वैदिक गणित कहा जाता है, खगोल शास्त्र पढ़ते है, नक्षत्र विज्ञान पढ़ते है, धातु विज्ञान पढ़ते है, जिसको आज हम मैट्रोलोजी कहते है, एस्ट्रो फिजिक्स पढ़ते है, केमिस्ट्री माने रसायन शास्त्र पढ़ते है, ऐसे लगभग १८ विषय विद्यार्थिओं को पढाये जाते है. और आपको ऐसा लगता होगा, कई लोगों के मन में ये भ्रम हो जाता है कि भारत में गुरुकुल माने खाली संस्कृत पढाई जाती होगी, और वेद और उपनिषद पढ़ा दिए जाते होंगे. लेकिन यहाँ दस्तावेज बताते है कि भारत में सभी गुरुकुलों में संस्कृत तो पढाई जाती है माध्यम के लिए और वेद पढाए जाते है और उपनिषद पढाये जाते है विद्यार्थियो में संस्कार देने के लिए, लेकिन विद्या देने के लिए खगोल शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान, धातु विज्ञान, धातु कला और फिर शौर्य विज्ञान माने सैन्य विज्ञान जिसको हम कहते है, जिसको मिलिट्री ट्रेनिंग कहते है. इस तरह के १८ विषय अलग अलग विद्यार्थियों को पढाये  जाते है. फिर इन गुरुकुलों में पढने के लिए विद्यार्थी जब आते है, तो उनकी उम्र कितनी होती है ? तो एक अंग्रेज अधिकारी लिख रहा है, उसका नाम है पेंटर ग्रा वो ये कहता है कि कोई बच्चा, भारत में पांच साल, पांच महीने, और पांच दिन का हो जाता है बस उसी दिन उसका गुरुकुल में प्रवेश हो जाता है. पांच साल, पांच महीने, और पांच दिन का हो जाता है उसी दिन बच्चे प्रवेश का गुरुकुल में हो जाता है. लगातार १४ वर्ष तक वो गुरुकुल में पढता है और १४ वर्ष की शिक्षा पूरी कर के वो गुरुकुल से बाहर निकलता है. तो एक सम्पूर्ण मानव बन के निकलता है. और वो जिम्मेदारी परिवार की उठा सकता है, समाज की उठा सकता है और देश की उठा सकता है. और पेंटर ग्रा कहता है कि शिक्षा भारत में इतनी आसान है कि गरीब हो या अमीर हो, पैसे वाला हो या बिना पैसे वाला हो, सबके लिए शिक्षा सामान है और सबके लिए व्यवस्था सामान है. और आपने तो ये बात बहुत बार सुनी होगी कि हमारे देशो में गुरुकुलों की व्यवस्था ऐसी ही रही है, कि भगवान श्री कृष्ण भी जिस गुरुकुल में पढ़े, उसी गुरुकुल में उनके मित्र सुदामा भी पढ़े. और सुदामा की आर्थिक स्तिथि के बारे में आप जानते है कि भगवान कृष्ण को मुट्ठी भर चावल तक नहीं खिला सकते, इतनी आर्थिक स्तिथि कमजोर है, फिर भी सुदामा को गुरुकुल में प्रवेश मिला है और श्री कृष्ण के साथ बैठ कर उन्होंने शिक्षा ग्रहण की है. माने एक तरफ करोडपति का बेटा, दूसरी तरफ रोडपति का बेटा दोनों एक ही जगह बैठ कर सामान शिक्षा ले रहे है. और गुरु उनको सामान भाव से शिक्षा दे रहा है. भारतीय गुरुकुलों की ये अदभुत विशेषता है. सारी दुनिया के विद्वान् इस बात पर भारत की बहुत प्रशंशा  करते है. वो ये कहते है कि भारत की शिक्षा हमेशा से निशुल्क रही है. निशुल्क शिक्षा के कारण गरीब हो या अमीर सबको पढने की व्यवस्था भारत में रही है. माने बहुत ज्यादा पैसा है वो ही पढ़ पाएगा, जिसके पास पैसा नहीं है वो नहीं पढ़ पाएगा, ये भारत के गुरुकुलों में कभी नहीं रहा.

थोड़ा आगे बढ़ता हु, इन गुरुकुलों के आधार पर जो भारत में जो चलता रहा है, वो क्या है, इन गुरुकुलों में विद्यार्थी धातु विज्ञान सीखते है या नक्षत्र विज्ञान सीखते है या खगोल विज्ञान सीखते है या धातुकर्म सीखते है या भवन विज्ञान सीखते है जो कुछ भी सीखते है, और सीख कर निकलते है, शायद वही बड़े बड़े वैज्ञानिक और इंजिनियर हो जाते है. १४ वर्ष की पढाई सामान्य नहीं होती है. आज की आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में अगर हम देखें तो यहाँ १४ वर्ष की पढाई तो जो प्रोफेशनल एजुकेशन है उसी में होती है. यहाँ तो भारत में सामान्य गुरुकुलों में १४ वर्ष की पढाई होती है. और इसके बाद विशेषज्ञता हासिल करनी है, पंडित होना है, पांडित्य आपको लाना है, तो उसके लिए उच्च शिक्षा के केंद्र इस देश में चलते है. जिनको उच्च शिक्षा केंद्र अंग्रेजो ने कहा है, आज उनको हम भारत में यूनिवर्सिटी और कॉलेजेस कह सकते है. आज इस भारत देश में, २००९ में, भारत सरकार के लाखो करोड़ो रूपये खर्च होने के बाद लगभग साढ़े तेरह हजार कॉलेजेस है प्राइवेट और सरकारी सब मिलाकर और ४५० विश्वविद्यालय है, निजी और सरकारी कोनो मिलाकर, साढ़े तेरह हजार कॉलेजेस है और ४५० विश्वविद्यालय है. जब लाखो करोड़ो रूपये सरकार ने खर्च किया है.

अब मै आपको १८२२ के बारे में जानकारी देता हु, कि १८२२ में अकेले मद्रास प्रान्त में, मद्रास प्रेसीडेंसी उसको कहा जाता है. अकेले मद्रास प्रान्त में, मद्रास प्रान्त का मतलब क्या है? आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक का कुछ हिस्सा, ये पूरा मद्रास प्रान्त है. अकेले मद्रास प्रान्त में १८२२ में ११,५७५ कॉलेजेस रहे है और १०९ विश्वविद्यालय रहे है. अकेले मद्रास प्रान्त में, और फिर मद्रास प्रान्त के बाद ऐसे ही मुंबई प्रान्त है, और फिर मुंबई प्रान्त के बाद ऐसे ही पंजाब प्रान्त है. फिर नार्थ – वेस्ट फ्रंटियर है, ये चारो स्थानों को मिला दिया जाये तो भारत में लगभग १४००० से भी ऊपर कॉलेजेस रहे है और लगभग ५०० से सवा ५०० के बीच में विश्वविद्यालय रहे है. अब विश्वविद्यालय आज से ज्यादा, कॉलेजेस भी आज से ज्यादा, सन १८२२ में भारत की ये स्थिति है, माने उच्च  शिक्षा भारत में अदभुत रही है, अंग्रेजो के आने के पहले तक, माध्यमिक शिक्षा तो अदभुत है ही, प्राथमिक शिक्षा भी बहुत अदभुत है लेकिन उच्च शिक्षा भी इस देश में अदभुत है. और इन कॉलेजेस में विशेष रूप से जो कॉलेजेस रहे है, अभियांत्रिकी के अलग कॉलेजेस है, इंजीनियरिंग के अलग कॉलेजेस है, सर्जरी के अलग कॉलेज है, मेडिसिन के अलग कॉलेज है. जिनको आज हम कहते है न मेडिकल कॉलेज अलग है, इंजीनियरिंग कॉलेज अलग है. मैनेजमेंट के कॉलेज अलग है, ये तो भारत में १८२२ में भी है, सर्जरी के विश्वविद्यालय अलग है. और ये हमारे चिकित्सा विज्ञान में जिसको हम आयुर्वेद कहते है, इसके विश्वविद्यालय अलग है, और मैनेजमेंट के विश्वविद्यालय अलग है. ये पुरे भारत में फैले हुए है और पुरे भारत के विद्यार्थियो की व्यवस्था यहाँ पर है. हमने सुना है तक्षशिला एक विश्वविद्यालय कभी होता था, हमने सुना है कभी नालंदा नाम का एक विश्वविद्यालय होता था. ये तक्षशिला नालंदा तो दो नाम है ऐसे तो ५०० से ज्यादा विश्वविद्यालय सम्पूर्ण भारत देश में हमारे आज से लगभग डेढ़ सौ – पोने दो सौ तक रहे है. तक्षशिला नालंदा तो आज से ढाई हजार साल पहले की कहानी है. लेकिन डेढ़ सौ पोने दो सौ साल पहले के भारत में सवा पांच सौ से ज्यादा विश्वविद्यालय है और १४००० के आस पास डिग्री कॉलेजेस है. तो शिक्षा व्यवस्था में भारत मजबूत है पूरी दुनिया में. आपको एक हंसी की बात मै कहू वो ये कि पुरे यूरोप में ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले शिक्षा व्यवस्था सामान्य लोगों के लिए इंग्लैंड में आई. और वो सन. १८६८ में आई. इसका माने यूरोप के देशो में में तो उसके और बाद में आई. तो आप बोलेंगे १८६८ के पहले इंग्लैंड में स्कूल नहीं थे? स्कूल नहीं थे, ये बात को सही तरह से समझना है, राजाओं के जो बच्चे जो होते थे, राजाओं के जो अधिकारी होते थे, उन्ही के लिए स्कूल होते थे. और वो राजाओं के महल में चला करते थे, वो सामान्य रूप से सार्वजनिक स्थानों पर नहीं चला करते थे. और साधारण लोगों को उनमे प्रवेश भी नहीं था, इंग्लैंड और यूरोप में ये माना जाता था कि शिक्षा जो है वो विशेषज्ञो के लिए है. और राजा विशेषज्ञ है तो राजा को शिक्षा है, उसके बच्चों को शिक्षा है, उसके अधिकारियो के बच्चों को शिक्षा है. आम आदमी को शिक्षित होने की जरूरत नहीं है. क्यों? तो यूरोप के दार्शनिक कहते है कि आम आदमी को तो गुलाम बन के रहना है, उसको शिक्षित होने से फायदा क्या है. दुनिया में बहुत बड़ा दार्शनिक माना जाता है अरस्तू और उससे भी बड़ा माना जाता है सुकरात. अरस्तू और सुकरात दोनों कहते है कि अन्य बच्चों को शिक्षा नहीं देनी चाहिए, शिक्षा सिर्फ राजा के बच्चों को, राजा के अधिकारियो के बच्चों को ही देनी चाहिए, तो उनके लिए कुछ पढने और पढ़ाने की व्यवस्था है, आम बच्चों के लिए नहीं है. जबकि भारत में बिलकुल उलटा है. शिक्षा आम बच्चों के लिए है, साधारण बच्चों के लिए है, वो गरीब हो, या अमीर हो, ऐसी अदभुत शिक्षा व्यवस्था हमारे देश में रही है.

अब शिक्षा के बाद में थोड़ी सी कृषि की बात करू कि भारत में कृषि व्यवस्था कैसी रही है. हमारे अतीत में कृषि व्यवस्था के बारे में जिन अंग्रेजो ने बहुत ज्यादा शोध किया है. उनमे से लेस्टर नाम का एक अंग्रेज है, वो ये कहता है कि भारत में कृषि उत्पादन दुनिया में सर्वोच्च है. और अंग्रेजो की संसद में भाषण देते समय वो कह रहा है कि भारत में एक एकड़ में सामान्य रूप से ५६ क्विंटल धान पैदा होता है, एक एकड़ में सामान्य रूप से. वो ये कह रहा है कि ये उत्पादन औसतन है, एवरेज है, वो ये कहता है की भारत के कुछ इलाके तो ऐसे है, जहाँ एक एकड़ में ७० से ७५ क्विंटल तक धान होता है. और कुछ इलाके ऐसे है जहाँ ४५ से ५० क्विंटल धान पैदा होता है. और वो कहता है कि मैंने औसत निकला है पुरे भारत का, तो ५६ क्विंटल धान पैदा होता है भारत की खेती में, इतनी उन्नत कृषि व्यवस्था भारत में है. आज के अनुसार मै आपको इसको अगर तुलना कर के बताऊ तो आज भारत में सबसे ज्यादा यूरिया, डी. एस. बी., सुपर फास्फेट, डालने के बाद, सबसे ज्यादा रासायनिक खाद डालने के बाद, औसतन एक एकड़ में ३० क्विंटल से ज्यादा धान पैदा नहीं होता, और आज से लगभग १५० साल पहले भारत में एक एकड़ में ५६ क्विंटल धान पैदा हो रहा है, जबकि उस समय यूरिया, डी. एस. बी. कुछ भी नहीं है. खाली गाय का गोबर और गौमूत्र का उपयोग किया जा रहा है. तो उत्पादन का स्तर ये है. फिर इसी में गन्ने के उत्पादन के बारे में आंकड़े है, अंग्रेजो की संसद में, वो ये कह रहा है कि भारत में एक एकड़ में १२० मीट्रिक टन गन्ना सामान्य रूप से पैदा होता है, पुरे भारत में. १२० मीट्रिक टन, और आज सन २००९ में, यूरिया, डी. एस. बी., सुपर फास्फेट के बोरे पर बोरे खेत में डालने के बाद, गन्ने का औसत उत्पादन पुरे देश में ३० से ३५ मीट्रिक टन है, एक एकड़ में. आप तो महाराष्ट्र से आए है, महाराष्ट्र का एक इलाका है, जिसको पश्चिम महाराष्ट्र आप कहते है, सांगली है, सतारा है, कोलापुर है, और पुणे के बीच का, इस पुरे इलाके में गन्ना औसतन रूप से एक एकड़ में ८० से ९० मीट्रिक टन है, बस यही क्षेत्र है भारत का जहाँ गन्ने का उत्पादन सबसे ऊँचा है पश्चिम महाराष्ट्र में, बाकि पुरे देश में तो गन्ने का उत्पादन ३० – ३५ मीट्रिक टन से ज्यादा नहीं है. और अंग्रेज उस समय का सर्वेक्षण कर रहे है और कह रहे है कि १२० मीट्रिक टन गन्ने का उत्पादन है भारत में  ऐसी खेती है, फिर वो कह रहे है कि कपास का उत्पादन सारी दुनिया में सबसे ज्यादा है. और एक ख़ास बाद जो अंग्रेज कह रहे है वो ये कि भारत में फसलों की विविधता सबसे ज्यादा दुनिया में भारत में ही है. एक अंग्रेज कह रहा है की भारत में धान के कम से कम १ लाख प्रजाति के बीज है, कम से कम १ लाख प्रजाति के बीज है. और ये बात अंग्रेज कह रहा है सन १८२२ के आस पास कह रहा है. सन १८२२ तक इस देश में धान की १ लाख से ज्यादा प्रजातियाँ मौजूद थी. और आज सन. २००९ के आते आते भी पचास हजार धान की प्रजातियाँ तो अभी भी इस पुरे देश में मौजूद है सन. २००९ के आते आते भी. तो इतना ज्यादा विविधता वाला ये देश है. फिर अंग्रेज कहते है कि भारत में सबसे पहला हल बना पूरी दुनिया का, और सारी दुनिया ने हल बनाना और खेत में हल को चलाना भारतवासियो से सिखा है ये भारत का सारी दुनिया को सबसे बड़ा कन्ट्रीब्युसन है. फिर एक अंग्रेज कहता है कि हल के अलावा खुरपी, खुरपी आप समझते है? निदाई, कुदाई करने के लिए उपयोग में आती है. खुरपी है, खुरपा है, हसिया है, हथोडा है, बेलची है, कुदाली है, फावड़ा है, पवित्र है, रैट है, ये सभी शब्द शायद आपके जाने पहचाने है. अंग्रेज कहते है कि ये सब चीजे दुनिया में बाद में आई है, भारत में सैकड़ो साल पहले ही ये बन चुकी है और इनका उपयोग होता रहा है. माने खुरपी, खुरपा, हसिया, फावड़ा, कुदाली जो सारी दुनिया में आज भी इस्तेमाल होते है खेत के लिए. वो भारत में सबसे पहले विकसित हुई है. और बीज को एक पंक्ति में बोने की जो परंपरा है वो हजारों साल पहले भारत में विकसित हुई है. दुसरे देशो को तो कभी उसकी कल्पना नहीं रही है. और इसी तरह अंग्रेजो के इंग्लैंड में १७५० में पहली बार कुछ किसानो ने भारत आ कर खेती सीखी और यहाँ से जा कर अपने इंग्लैंड में उन्होंने कुछ प्रयोग किये, और उसके बाद खेती का काम थोड़ा बहुत उनके यहाँ आगे बढ़ा. इसके पहले कोई उनके यहाँ रिकॉर्ड नहीं मिलते है कि खेती उनके यहाँ कोई बहुत अच्छी होती थी. तो आप पूछेंगे, १७५० के पहले ये इंग्लैंड वाले जीते कैसे थे, या स्कोटलैंड वाले कैसे जीते थे, अगर उनके यहाँ खेती नहीं थी, वो जंगल के द्वारा होने वाले उत्पादन और पशुओ को शिकार कर के उससे उत्पादित होने वाले मांस पर जिन्दा रहते थे. जंगल से जो कुछ मिल गया और पशुओ को मारकर जो मांस पैदा कर लिया, उसी को खा कर उनका जीवन हजारो साल गुजरा है, और जिस समय इंग्लैंड वाले या यूरोप वाले दो ही चीजें खा पाते थे या तो मांस या तो जंगल के फल. उस समय भारत में खाने के लिए १ लाख किस्म के चावल उपलब्ध हुआ करते थे. तो बाकि चीजो की तो बात छोड़ दीजिए. तो ऐसी अदभुत हमारी कृषि व्यवस्था रही है.

और इसी कृषि व्यवस्था के साथ थोड़ा आगे दो तीन बातें और कहता हु, कि कृषि व्यवस्था जब इतनी अदभुत रही हमारे देश में, तो उत्पादन सारी दुनिया में सबसे ज्यादा हम करते रहे, और उस उत्पादन को दुनिया भर के देशो में हम निर्यात करते रहे. तो भारत ने लोहा ही निर्यात नहीं किया हमने, कपड़ा ही निर्यात नहीं किया है, हजारो साल तक भारत का चावल दुनिया में निर्यात हुआ है, हजारो सालों तक दालें दुनिया को निर्यात की है, हजारो साल तक भारत में बनाया हुआ गुड़, ये जो शक्कर बनती है न चीनी, ये तो अभी सौ साल पहले बनना शुरु हुई है, उसके पहले गुड़ बनता था और गुडीया शक्कर बनती थी. तो गुड़ और गुडीया शक्कर सारी दुनिया को हजारो साल तक भारत ने उत्पादित कर के खिलाई है. और खाने पीने की हजारो हजारो चीज़े दुनिया भर के देश हमसे खरीद्ते रहे है और हमको बदले में सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात मिलते रहे है.

अब मै एक आखिरी बात कहना चाहता हु आपसब से और वो ये कि भारत ने कृषि उत्पादन में सर्वोच्चता हासिल की, भारत ने ओद्योगिक उत्पादन के सर्वोच्चता हासिल की, भारत ने व्यपार में सर्वोच्चता हासिल की, इन सब का आधार था भारत की शिक्षा व्यवस्था. अगर शिक्षा व्यवस्था अच्छी नही होती तो शायद भारत ये कोई भी काम अच्छा नहीं कर पाता. किसी भी देश का तरक्की का पैमाना हम जब नापते है न, कि इस देश का कितना विकास है, तो दो ही चीजो से वो पैमाना नापा जाता है और बनता है. पहला होता है स्वास्थ्य और दूसरा होता है चिकित्सा. भारत का स्वास्थ्य दुनिया में सबसे अदभुत रहा है, क्योकि इस देश में चिकित्सा विज्ञान दुनिया में सबसे ज्यादा उन्नत स्थिति में रहा है. चिकित्सा विज्ञान में हजारो हजारो किस्म की आयुर्वेद की जड़ी-बुटिया, और सर्जरी की सारी की सारी विद्या पूरी दुनिया को यही से गई है. और अभी जो सर्जरी के पुराने दस्तावेज मिलते है, वो बताते है कि भारत में हिमांचल प्रदेश और पूरा महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल सात आठ राज्य थे, जहाँ सर्जरी के सबसे बड़े शोध केंद्र चला करते थे, और एक दो नहीं हजारो हजारो सर्जरी के विशेषज्ञ इन केंद्र में पढ़कर तैयार होते थे, और समाज की सेवा करते थे. आपको सुन कर हैरानी होगी जब दुनिया में कोई नहीं जनता था, आँख में मोतियाबिंद का पहला आपरेशन भारत में हुआ है, और जिसको आज हम राइनोप्लास्टी कहते है, सर्जरी की सबसे आधुनिकतम विद्या उसका सबसे पहला परिक्षण और प्रयोग भी भारत में हुआ है. और इंग्लैंड की जो रॉयल सोसाइटी ऑफ़ सर्जन है वो अपने इतिहास में लिखते है कि हमने सर्जरी भारत से सीखी है. और उसके बाद पुरे यूरोप को हमने ये सर्जरी सिखाई है, तो भारत चिकित्सा में बहुत ऊँचा, भारत तकनीकी में बहुत ऊँचा, भारत विज्ञान में बहुत ऊँचा, भारत उद्योग में बहुत ऊँचा, और इन सबके बाद भारत व्यापार में बहुत ऊँचा, और ये सबका आधार भारत शिक्षा व्यवस्था में सबसे ऊँचा, ऐसा अदभुत देश हमारा भारत रहा है, जो अंग्रेजो के आने के पहले तक था. तो फिर आप बोलेंगे इतनी गिरावट भारत में कैसे आई, ये सारी गिरावट भारत में आई, अंग्रेजो की नीतियो के कारण, और अंग्रेजो के कानूनों के कारण, अंग्रेजो ने देखा कि भारत की सारी कि सारी व्यव्स्थाए इतनी अदभुत है, तो इन सारी व्यवस्थाओ को ख़त्म करना है, तोडना है, क्योकि गुलाम बनाना है भारत को, मेकवेल ये कहता है कि भारत को गुलाम बनाना है भारत को तो भारत की संस्कृति, सभ्यता, शिक्षा इन सबका नाश करना पड़ेगा, तो इनका नाश करने के लिए उनलोगों ने कानून बनाए, सबसे पहले एक कानून बनाया इंडियन एजुकेशन एक्ट, और उस कानून के आधार पर भारत के गुरुकुल बंद किए गए, और धीरे धीरे भारत की शिक्षा व्यवस्था का नाश हो गया. फिर अंग्रेजो ने एक दूसरा कानून बनाया की भारत की वस्तुओ पर ज्यादा से ज्यादा कर लगाओ, और अंग्रेजी वस्तुओ को भारत में टैक्स फ्री कराओ, उससे बाद भारत के कारखाने बंद हो गए, फिर भारत का निर्यात खत्म हो गया, फिर भारत की कृषि व्यवस्था के लिए अंग्रेजो ने कानून बनाया कि किसानो के ऊपर ९० प्रतिशत लगान लगाओ, और किसानो की जमीने छिनने के लिए लैंड ऐक्विजिसन एक्ट बनाओ. उसके बाद हिंदुस्तान के किसान बर्बाद हो गए. फिर किसानो के काम आने वाली गाय और बैल इनका कत्ल कराओ, और सबसे पहला कत्लखाना अंग्रेजो ने शुरु किया कोलकाता में, जो आज भी चल रहा है, अंग्रेज उसमे ३५० गाय रोज काटते थे, अब उस कत्लखाने में १४००० गाय रोज कट रही है, तो ये सारी की सारी दुर्व्यवस्था जो हमारे यहाँ पैदा हुई वो अंग्रेजो की गलत नितियो के कारण और अंग्रेजो के गलत शासन व्यवस्था के कानूनों के कारण हुई, अगर अंग्रेजी शासन नहीं होता, और अंग्रेजी कानून इस देश में लादे नहीं, तो आज मै इस बात को बहुत विश्वास से कह सकता हु कि आज भी भारत दुनिया का सर्वोच्च शिखर पर बैठा हुआ देश होता, चिकित्सा में, शिक्षा में, उद्योग में, व्यापार में, तकनीकी में, विज्ञान में, अगर अंग्रेज नहीं आते, ईस्ट इंडिया कम्पनी नहीं आती, अगर अंग्रेजी कानून इस देश पर नहीं लादे जाते, और  अंग्रेजी नीतिया इस देश में नहीं चलाई जाती, तो अभी भी भारत अदभुत होता, सारे दुनिया की महाशक्ति होता, परम वैभवशाली देश होता, लेकिन दुर्भाग्य कि अंग्रेज आए, और उन्होंने ये सब किया, अब हमें क्या करना चाहिए, भारत स्वाभिमान के कार्यकर्त्ता के नाते मुझे ये लगता है कि  हमको जो भारत कभी अंग्रेजो के आने के पहले था, विश्वशिखर में सर्वोच्च सत्ता पर बैठा हुआ सर्वश्रेष्ठ देश, वैसा ही भारत फिर बनाना है, यही हमारे भारत स्वाभिमान के लिए सपना है, और इसी सपने को पूरा करने के लिए हम सब परम पूजनीय स्वामी जी के नेतृत्व में सेना बन कर काम करे, और सेना बनकर अपने सेनापति के आदेश पर वो सब कर डाले जो इस भारत के गौरव को फिर से वापस लाने में हमारी मदद कर सके.

आप सभी का बहुत आभार, बहुत धन्यवाद.