अमेरिका ने जिस सिद्धांत पर कार्य करते-करते 30 वर्ष बीता दिए फिर भी हाथ कुछ नहीं लगा. ठीक उसी सिद्धांत को एक भारतीय ने सिद्ध करके दिखा दिया. असम में जन्मे मैकेनिकल इंजिनियर उद्धव भराली ने 1987 में गरीबी के कारण अपने महाविद्यालय की पढाई को बीच में ही छोड़ दिया.
उन्हें अपने परिवार के लोगों द्वारा निकम्मे की उपाधि दे दी गयी क्योंकि वे हमेशा किसी पागल आदमी की तरह नए-नए कामों को करते रहते जो दुनिया ने कभी देखें ही नहीं थे. बाद में इसी पागलपन के कारण उद्धव भराली को नासा द्वारा एक सफलतम नवीन आविष्कारक के लिए नामांकित किया गया.
सन् 2006 में उद्धव द्वारा बनायीं गयी अनार के दाने निकालने वाली मशीन(Pomegranate De-Seeding Machine) को पहली बार अपने आप में एक अनोखी मशीन होने के कारण भारत ही नहीं पुरे विश्व में मान्यता प्राप्त हुई. उनकी इस सफलता को देखते हुए उन्हें चीन, अमेरिका और कई विकसित देशों से ऑफर मिले साथ ही ये देश उन्हें अपने देश की नागरिकता देने के लिए भी तैयार थे. लेकिन उन्होंने भारत के ग्रामीण इलाकों में कृषि और लघु उद्योगों के विकास हेतु अपनी सेवा दी. बाद में उन्होंने देश के ग्रामीण इलाकों के युवाओं को खेती के लिए उपकरण बनाने की ट्रेनिंग दी जिनकी लागत बहुत कम हो जिससे किसानों को अधिक खर्च ना उठाना पड़े.
वर्तमान में भराली को 118 आविष्कार करने का श्रेय प्राप्त है.
भराली ने अपनी स्कूल की पढाई अपने गाँव लखीमपुर के सरकारी स्कूल से की. अक्सर उनके शिक्षक उन्हें कक्षा से बाहर खड़ा रखते थे क्योंकि वे हमेशा गणित के कठिन सवालों में अपने शिक्षक को फंसा दिया करते थे. घर में एक गाय थी जिसके दूध से पांच लोगो का काम चलता था, कभी-कभी माँ दूध के साथ मूंगफली के दाने भी दे दिया करती थी. यही उनके पुरे दिन का भोजन होता था. भराली परिवार का बैंकों में 18 लाख रुपये बकाया था, छोटे-मोटे काम से एक बड़े परिवार का भरण पोषण करना मुश्किल होता था, इसीलिए दुर्घटनावश वे नई-नई खोजबीन करने लगे.
भराली कहते है कि जब वे कक्षा 8 में थे तब कक्षा 11वीं और 12वीं के पाठ्यक्रम की गणित के कठिन से कठिन सवालों को चुटकियों में हल कर देता था, कई बार तो कॉलेज के विद्यार्थी भी मेरे पास मदद के लिए आते थे. 14 वर्ष की उम्र में मैंने अपनी स्कूल की शिक्षा पूरी की और उसके बाद परिवार की गरीबी के साथ अपनी इंजीनियरिंग की पढाई को पूरी नहीं कर पाया.