सड़क किनारे किताबों की दुकान लगाती हैं संजना; अपने ज्ञान से करती हैं साहित्य की हस्तियों को दंग

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बिहार के सीवान जिले के एक छोटे से गांव की लड़की को साहित्य की किताबें पढ़ना खूब अच्छा लगता था। वह खूब पढ़ना चाहती थी, लेकिन जब उसने 10वीं पास की, तभी मात्र 15 साल की उम्र में उसकी शादी कर दी गई। अब प्रेमचन्द की कहानियों को पढ़ने का समय उसके पास नहीं था। उसे बच्चन की कविताओं के बजाए अपने बच्चों को समय देना पड़ता था लेकिन उसने हार नहीं मानी…

शादी के बाद उसे अपने पति के साथ अनजान शहर दिल्ली आना पड़ा, लेकिन उसने अपने सपनों को जिन्दा रखा और तमाम मुश्किलों के बावजूद हिन्दी साहित्य का मन लगाकर अध्ययन किया। डिग्री से प्रतिभा का आंकलन करने वाले इस देश में उन्हें कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली, तो अपनी पढ़ी हुई किताबों को उन्होंने बेचना शुरू कर दिया।

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साहित्य और कला से जुड़ी नामी हस्तियां इनके ज्ञान को देखकर दंग रह जाती हैं। लोग हिन्दी साहित्य की किसी किताब को खरीदने से पहले इनकी राय जरूर लेते हैं।

आइए जानते हैं सड़क के किनारे किताब लगाने वाली संजना तिवारी की कहानी।

कई सालों से किताबों की दुकान लगाने वाली 42 वर्षीया संजना कहती हैं

“झूठ बोलते हैं वो लोग जो कहते हैं कि पैसों और सुविधाओं की कमी के कारण वह अपने सपने को नहीं जी पाए। जिसको अपने सपने से प्यार है वह उसे किसी भी तरह पूरा कर ही लेता है। परेशानियों से ही इंसान सीखता है।”7-90

कला और थिएटर के लिए मशहूर दिल्ली के मंडी हाउस में श्री राम सेंटर ऑडिटोरियम के बाहर जमीन पर पुस्तकें बेचने वाली संजना की शादी बेहद कम उम्र में हो गई थी। संजना बताती हैं कि वह आगे पढ़ना चाहती थीं, लेकिन शादी के बाद यह थोड़ा मुश्किल हो गया था। लेकिन उन्होंने अपने सपने को मरने नहीं दिया और पहले इंटर किया और अब वह बीए कर रही हैंं।6-94

हिन्दी भाषा से इनका लगाव कक्षा चार में हरिवंश राय बच्चन की कविता पढ़कर हुआ था।संजना कहती हैंः

“जब मेरे बच्चे बड़े हुए और खुद खेलने लगे तो मैंने फिर किताबों से खेलना शुरू कर दिया, जो अभी तक जारी है।”

इतना ही नहीं अपने इस शौक को जीने में परेशानी होते देख इन्होंने किताबें बेचनी शुरू दी। किताबें बेचने का सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि इन्हें किताबें भी पढ़ने को मिल जाती हैं और थोड़ी बहुत कमाई भी हो जाती है।8-76

संजना का घर मंडी हाउस से काफी दूर है लेकिन शायद इसे ही जुनून कहते हैं जो संजना अकेले ही स्कूटी पर लादकर किताबें बेचने के लिए रोज लाती हैं। लोग दूर-दूर से यहां किताबें खरीदने आते हैं।

खास बात यह है कि इनके पास किताब खरीदने वाले को अगर किसी किताब के बारे में जानना होता है तो वह इनसे पूछकर किताब का सारांश जान सकता है, क्योंकि ज्यादातर किताबें इनकी पढ़ी हुई हैं।

संजना हिन्दी भाषा के गिरते स्तर पर चिंता जताते हुए कहती हैं कि यह विडम्बना ही है कि आजकल के लोगों को ये नहीं पता कि प्रेमचन्द कौन हैं, लोग ये नहीं जानते कि यशपाल कौन हैं। बड़े गर्व से वह बताती हैं कि प्रेमचन्द का पूरा साहित्य वह पढ़ चुकी हैं।

संजना कहती हैं कि जब वह दिल्ली की लड़कियों को बेफिक्र होकर घूमते हुए देखती हैं तो उन्हें बड़ा अजीब लगता है। वह कहती हैं कि इनके पास पैसा है, सुविधा है। अगर ये चाहें तो दुनिया ही बदल दें। इन्हें कौन समझाए कि हमें पढ़ने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा है। हम किताबों के लिए तरसते थे। समय के लिए तरसते थे और ये लोग हैं कि पूरा दिन ही गप्प लड़ाने में निकाल देते हैं।

संजना के पति बतौर लेखक एक बड़े अखबार में नौकरी करते हैं। इनके एक बेटा और एक बेटी है। बेटी सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रही है और बेटा एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहा है। वह बताती हैं कि उनके बच्चों को उनके काम पर गर्व है।

मंडी हाउस दिल्ली के थिएटर का गढ़ है और यहां इनकी किताबों को खरीदने के लिए देश के बड़े-बड़े आर्टिस्ट आते रहते हैं। तमाम एक्टर्स इन्हें पहचानते हैं और जब भी वे मंडी हाउस आते हैं तो वह इन किताब वाली आंटी से जरूर मिलते हैं।

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