विश्व व्यापर संघठन का सर्विस सेक्टर पर प्रभाव By Rajiv Dixit Ji

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सेवा क्षेत्र (यानि बैंक, बीमा, परिवहन, दूरसंचार, मीडिया, विज्ञापन, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि) पहली बार शामिल किया गया है। पूर्व के गैट समझौते में ये विषय शामिल नहीं थे। सेवा समझौते का अनुच्छेद -2 कहता है “Services include any service in any sector except services supplied in the exercise of governmental authority” पैरा 3(c) और स्पष्ट करता ह – “A service supplied in the exercise of governmental authority means any service which is supplied neither on a commercial basis, nor in competition with one or more service suppliers” अर्थात् सरकारी प्रशासनिक कार्यों और सैनिक कार्यों को छोड़ सेवाओं के सभी क्षेत्र इस समझौते में शामिल कर लिये गये हैं। नगर महापालिकाओं द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, कल और सफाई व्यवस्था भी सेवाओं के समझौते में आ गयी है इसीलिये तो समझौता स्पष्ट कहता है

– (अनुच्छेद -1 पैरा (a)” measures taken by (i) Central, regional or local governments and authorities and (ii) non governmental bodies in the exercise of power delegated by central, regional or local governments or authorities” | इतना व्यापक है यह समझौता कि सरकरी प्रशासनिक और सैनिक कार्यों को छोड़ प्रत्येक सेवा के क्षेत्र में विदेशी कम्पनियों को व्यापार की पूरी छूट देनी होगी। समझौते के अनुच्छेद -2 का पैरा 1 कहता है “with respect to any measure covered by this agreement, each member shall accord immediately and unconditionally to services and service suppliers of any other member, treatment no less favorable than that it accords to like services and service suppliers of any other country”.

सेवा क्षेत्र इतना साफ क्यों बनाया गया है और उसे इतनी जल्दी विश्व व्यापर में क्यो जोड़ा गया है, उसे समझने के लिये यह जानना जरूरी है कि विकसित देशों के इसमें क्या हित है। विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं में सेवा क्षेत्र का सबसे ज्यादा हिस्सा है। स्विट्जरलैंड जैसे देशों की 90 फीसदी आमदनी सेवा क्षेत्र से होती है। जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड और अमेरिका में दो-तिहाई से ज्यादा रोजगार सेवाओं के कारोबार से ही मिले हैं। सूचना क्रान्ति (सैटलाइट टी. वी.) ने सेवा क्षेत्र में बहुत इजाफा किया है। कृषि के प्राथमिक क्षेत्र और उद्योगों के द्वितीय क्षेत्र को संचालित और नियन्त्रित करने में सेवाओं के तीसरे क्षेत्र (अर्थ व्यवस्थाओं के तीन क्षेत्र माने जाते हैं।) की महत्वपूर्ण भूमिका है अर्थात यदि सेवाओं पर आपका कब्जा है तो कृषि और उद्योग स्वमेव आपके नियन्त्रण में आ जायेंगे।

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सेवा क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण वित्तीय सेवा (बैंक और बीमा) और दूर-संचार (रेडियों, दूरदर्शन, टेलीफोन आदि) हैं। आज विकसित देशों के दस बड़े बैंको के पास दुनिया की दो तिहाई पूंजी की मिल्कियत है। जापान के तीन बड़े बैंकों में प्रत्येक के पास भारत के सकल घरेलू उत्पाद के तीन गुना से ज्यादा पूंजी है। अमेरिका, जर्मनी और इंग्लैण्ड के बैंकों की भी यही स्थिति है। ये बैंक विश्व राजनीति के माध्यम (जो पैसे के सहारे चलती है) और विश्व व्यापर (जो राजनीति के माध्यम से चलता है) पर कब्जा जमाए हैं। इन बैंको के कारोबार में कोई नियम-कानून नहीं चलते, न ही ये किसी देश के नियम-कानूनों से बंधे हैं।

अरबों-खरबों का निपटारा क्षण भर में कर देते हैं। दूर संचार, सूचना और विचार फैलाने का सबसे बड़ा तंत्र बन गया है। क्या सूचना देनी है और किस तरह के विचार फैलाने हैं दूर-संचार तंत्र पर कब्जा जमाये बैठे बड़े-बड़े पूंजी-पति (CNN. STAR TV, BBC) आदि तय करते हैं। इनका सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है Homogenization of culture सांस्कृतिक विभिन्न्ताओं को नष्ट कर ’सांस्कृतिक एकता’ बनाना। देशी लोग क्या खाएं, क्या पीयें, कैसे रहे, कैसे उठें-बैठें, कैसे ’विकसित’ हों और आधुनिक बनें, पश्चिमी जीवन शैली के अनुरूप ये प्रचार माध्यम यह सब हमें सिखाते हैं। और अब इन दोनों क्षेत्रों में हमने अपने देश को पूरी तरह विदेशी बैंकों के कब्जे में दे दिया है। और लोगों की दिनचर्या को विदेशी दूरसंचार कम्पनियाँ तय करेंगी।

सेवा समझौते के अनुच्छेद-16 के अनुसार सदस्य देशों की सेवा कम्पनियों या व्यक्तियों पर कोई भी प्रतिबन्धात्मक नियम-कानून लगाने से रोका गया है। हम इसका कितना फायदा उठा सकते हैं, कहा नहीं जा सकता। नये-नये बाजार अवसरों का असली फायदा तो सेवा क्षेत्र में कार्यरत बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ ही उठायेंगी जिनके पास आधुनिक, कम्प्यूटर युक्त स्वचालित तकनीकें हैं जो काम को तेजी से निपटा सकती हैं। हमारे देश में सरकार द्वारा संचालित सेवाओं (बैंकों, बीमा कम्पनियों, परिवहन, रेलवे, टेलीफोन, रेडियों और दूरदर्शन आदि) की हालत बहुत खस्ता है। यदि विदेशी सेवा कम्पनियों को छूट दे दी जाय तो ये प्रतिस्पर्धा में कहां तक टिक पायेंगी ? अतः मार्केेट एक्सेस अवसरों का असली फायदा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ही मिलेगा।

आँखें मूंदकर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के माध्यम से, जब हम बनी-बनायी तकनीक का आयात करते है तो हम दरअसल दूसरे देशों के इंजीनियरों, तकनीकी विशेषज्ञों को काम मुहैया कराते हैं। अर्थात् अपने देश से विकसित देशों को रोजगार का निर्यात करते हैं। इस तकनीकी आयात की प्रक्रिया में भारतीय इंजीनियरों व तकनीकी विशेषज्ञों को जो अतिरिक्त कार्य दिया जा सकता था और अधिक रोजगार के अवसर पैदा किये जा सकते थे, वे एकदम समाप्त हो जाते हैं। इससे हमारे देश के इंजीनियर व तकनीकी विशेषज्ञ बेकार रहते हैं, वहीं दूसरी ओर किसी विकसित औद्योगिक देश को, जहाँ की कम्पनी होती है, अतिरिक्त रोजगार के अवसर पैदा हो जाते हैं। इसके अलावा जब बनी बनायी तकनीक का आयात होता है तो भारतीय इंजीनियरों का कार्य सिर्फ तन्त्रा को चालू रखने का होता है। सर्वविदित है कि कारखानों के रख-रखाव के लिये किसी बड़ी प्रतिभा की जरूरत नहीं होती है। जबकि तकनीकी विशेषज्ञता का योगदान नयी विध्यिाँ विकसित करने में और विभिन्न क्षेत्रों में अनुसंधन द्वारा विकास करने में होता है। इस प्रकार जो इंजीनियर या तकनीकी विशेषज्ञ देश में काम में लगे हुये हैं, उनकी प्रतिभा का भी सही उपयोग नहीं हो पाता है।

औद्योगिक देशों को एक और बड़ा लाभ उस बुशक्ति के आयात से मिलता है जो सुनहरे भविष्य की खोज में भारत जैसे देशों से उनके यहाँ जाती है। प्रौद्योगिकी विज्ञान तथा अन्य महत्वपूर्ण विषयों में विशेष शिक्षा पाकर जो लोग देश को उसका कुछ भी लाभ दिये बगैर ब्रिटेन, अमेरिका, जर्मनी इत्यादि चले जाते हैं वे उन देशों को न सिर्फ आर्थिक व बौ(िक लाभ पहुँचाते हैं बल्कि ऐतिहासिक लाभ भी।

‘सेंटर पफार प्लानिंग रिसर्च एण्ड एक्शन’ नयी दिल्ली के अध्ययन के मुताबिक प्रतिभा पलायन के कारण भारत को अब तक 130 अरब का नुकसान हो चुका है और अगर यह नहीं रूका तो शताब्दी के अंत तक 75 लाख से ज्यादा कुशल और प्रशिक्षित भारतीय विदेशों में काम कर रहे होंगे। पिफलहाल 2.5 करोड़ भारतीय विदेशों में काम कर रहे है। अध्ययन के अनुसार भारतीय इंजीनियर विदेशी में 32 प्रतिशत, डाक्टर 28 प्रतिशत और वैज्ञानिक 5 प्रतिशत हैं।

जब एक डाक्टर भारत को छोड़कर अमेरिका जाता है तो देश को 3.5 करोड़ रूपये का नुकसान होता है लेकिन वह अमरीका में 60 करोड़ यानी 20 गुना ध्न कमा कर उस देश की समृ(ि में भागीदार होता है। जबकि दूसरी ओर भारत एक विकासशील देश है जहाँ डाक्टरों का अभाव है, जहाँ शहर में 5 हजार लोगों पर एक डाक्टर है तथा गाँव में 45 हजार लोगों पर एक डाक्टर है।

भारत से निकलने वाली प्रतिभाओं की एक बड़ी संख्या अमेरिका चली जाती है। 1957 से 1965 तक अमेरिका में भारतीय वैज्ञानिकों, डाक्टरों तथा इंजीनियरों की संख्या सिर्फ 1000 थीं वही 1966 से 1968 तक वह संख्या 4000 हो गयी। 1977 तक भारत में 16,849 वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर अमेरिका चले गये।

उदार आर्थिक नीतियों के चलते देश में विदेशी अनुबंधों की बाढ़ आ गयी है। जुलाई 2008 तक देश में 45,000 से अधिक विदेशी अनुबंध चल रहे हैं। जिनके चलते गैर जरूरी क्षेत्रों में आर्थिक विकास ज्यादा हुआ है। पिछले 5 वर्षों में संगठित क्षेत्रों ;बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ व निजी देशी कम्पनियाँद्ध में सबसे अधिक विकास हुआ है जबकि इस क्षेत्रा में रोजगार अवसरों की वृ(ि दर मात्रा 1.5 प्रतिशत रही है। यानि संगठित क्षेत्रा में पूँजी निवेश सबसे अधिक हुआ है लेकिन रोजगार के अवसर उस तुलना में पैदा नहीं होये।

दूसरी ओर देश का लघु उद्योग का क्षेत्र है जिसमें सबसे कम पूजी का निवेश किया जाता है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि देश के जितने भी रोजगार है उनमें से 80 प्रतिशत इन असंगठित लघु उद्योगों में है। लघु उद्योगों में 1986-87 में रोजगार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या 10.1 करोड़ थी जो वर्ष 1987-88 में बढ़कर 10.7 करोड़ तक पहुँच गयी भारत में 2008 के अन्त तक लघु उद्योगों एवं गृह उद्योगों की कुल संख्या 5.8 करोड़ थी। इसमें से 6,40,000 लाख लघु इकाइयाँ इन विशालकाय कम्पनियों के बाजार में एकाध्किार के चलते बीमार हो गयी हैं और बन्द होने के कगार पर हैं।

चूकि इन विदेशी कम्पनियों ने लघु उद्योग में बनने वाले हर सामान को बनाने के क्षेत्रा में घुसपैठ कर रखी है, अतः लगभग 10 लाख 30 हजार अन्य छोटी इकाईयाँ इनके सामने प्रतिस्पर्ध में ध्ीरे-ध्ीरे चल रही है। हर वर्ष देश में बीमार इकाईयों की संख्या बढ़ती चली जा रही है जिससे लाखों लोग बेराजगार होते जा रहे हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार देश में प्रतिवर्ष 1 करोड़ 84 लाख नये बेराजगार लोग पैदा हो जाते है। इनमें से अधिकांस छोटी इकाईयों के बन्द हो जाने की वजह से बेरोजगार हो जाते है।

इसके अतिरिक्त इन विदेशी कम्पनियों ने विकास के नाम पर सैकड़ों वर्षो से चल रहे हमारे देशी कारोबार, हुनर और हस्त शिल्प को रौंदा है, जिसमें लगे करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छिन गयी है। आध्ुनिकीकरण की सबसे ज्यादा मार पड़ी है कारीगरों, दस्तकरीं व कुटीर उद्योगों पर। जूता उद्योग का

आध्ुनिकीकरण होगा तो कोन मारा जायेगा? मोची। कपड़ा उद्योग का मशीनीकरण होगा तो कौन बरबाद होगा? बुनकर। वस्त्रा उद्योग का रेडीमेडीकरण ;सिले सिलाये कपड़ेद्ध होगा तो कौन नष्ट होगा? दर्जीं मिठाई बनाने के क्षेत्रा में जब विदेशी कम्पनियाँ घुसेंगी तो कौन हैरान होगा? हलवाईं कुल्हड़ की जगह विदेशी कम्पनियाँ प्लास्टिक के गिलास बनाने लगेंगी तो कुम्हार किस काम का रह जायेगा? पफलों का रस डिब्बा बन्द करके बेचने के लिये विदेशी कम्पनियाँ आयेंगी तो कौन समाप्त होगा? पफलों का रस बेचने वाले लोग। पानी बेचने के लिये भी विदेशी कम्पनियाँ आयेंगी तो आगे कहा नहीं जा सकता, हम लोग स्वयं सोच लेें।

सरकारी आँकड़ों के अनुसार सन् 2008 के अन्त तक देश में कुल बेरोजगारी की संख्या लगभग 20 करोड़ है। यह संख्या उन लोगों की है जिन्होंने अपना पंजीकरण सरकारी कार्यालयों में करवा लिया है। इसके अतिरिक्त देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो कभी इस तरह का पंजीकरण करवाने के लिये प्रस्तुत नहीं होते हैं। गाँव के अधिकांस युवक तो पंजीकरण करवाते ही नहीं हैं। इस तरह के लोगों को मिलाकर अनुमानित बेरोजगारों की संख्या 40 करोड़ से अधिक है।

एडीडास, प्यूमा ड्यूक, नाईक, लाट्टो, आदि विदेशी कम्पनियों के भारत में सिले हुये ;रेडीमेडद्ध कपड़ों के क्षेत्रा में घुस जाने से देश भर के लाखों दर्जियों की आजीविका छिनेगी। भारत में बहुत तेजी से सिले हुये कपड़ों का बाजार बनता जा रहा है।

एडीडास, प्यूमा, लोट्टो द्वारा भारत के खेल सामान बनाने वाले क्षेत्रा में घुस जाने से, जालन्ध्र के खेल सामान उत्पादन के लघु उद्योग में लगे हुये 60 हजार कुशल कारीगरों के अस्तित्व को खतरा है। इसके अलावा उत्तरप्रदेश, पश्चिमी बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र तथा दिल्ली में लगे हुये लगभग 1 लाख 80 हजार अन्य कुशल श्रमिकों का रोजगार भी खतरे में पड़ जायेगा।

ब्रिटानिया के चलते उ.प्र., बिहार, व मध्यप्रदेश के बेकरी उद्योग में लगे 1 लाख 22 हजार से भी अधिक श्रमिकों की रोजी-रोटी चैपट होने के कगार पर है। बाटा व प्लास्टिक के जूतों के चलने से देश के लाखों मोचियों को बरबाद किया है। विमको ने बरेली व शिवाकाशी के माचिस उद्योग में लगे हजारों श्रमिकों को चैपट कर दिया है। पेप्सी कोला के आने से खाद्य सामग्री और पेय बनाने वाली देश की 2525 छोटी इकाइयों में से अधिकांश बंद हो गयी। लगभग 3 लाख 75 हजार कुशल कारीगर श्रमिक अपनी आजीविका के लिए दर-दर भटक रहे है।