ये है रूपये और डॉलर का असली खेल ! इस खेल को आसान भाषा में समझिए

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आजादी के बाद से भारत सरकार ने बहुत बड़ी गलती की है वो ये कि किसानों की तरफ ध्यान नहीं दिया, खेतों की तरफ ध्यान नहीं दिया, पूंजी के लिए विदेशों से कर्ज मांगना शुरु कर दिया. जिस हिंदुस्तान ने अपने इतिहास में कभी किसी देश से कर्ज नहीं लिया था उस हिंदुस्तान ने आजादी के बाद 1952 पहली बार दुनिया से कर्ज माँगा आपको ये सुनकर बहुत दुख होगा कि 1947 तक हम दुनिया में ऐसे देश थे जिसके ऊपर कर्जे का 1 रुपया नहीं था फिर 1952 में हमारी सरकार ने विदेशी कर्ज लेना शुरू कर दिया है.

जब कर्ज लेना शुरु कर दिया तो कर्ज देने वालों ने अपनी शर्ते हमारे उपर लगाना शुरु कर दिया क्योकि आप किसी से भी कर्ज लेंगे तो फोकट में नहीं देगा. आप बैंक से कर्ज मांगने जाते हैं तो बैंक अपने शर्त बताता है वैसे ही विश्व बैंक से कर्ज मांगा तो विश्व बैंक ने अपनी शर्त बताना शुरू किया और उनकी शर्तें यह थी कि जिस मुद्रा में भारत हमसे कर्ज लेगा उसकी कीमत बढ़नी चाहिए मतलब अगर भारत डॉलर में कर्ज लेगा तो डॉलर की कीमत बढ़नी चाहिए. अगर भारत स्टर्लिंग पाउंड में कर्ज लेगा तो स्टर्लिंग पाउंड की कीमत बढ़नी चाहिए. ऐसे ही अन्य देशो की मुद्राओ की शर्त रखी गई.

तो जो भी विदेशी मुद्राओं में हमने कर्ज लेना शुरू किया उन मुद्राओं की कीमत बढती गई और उस कीमत को बढ़ाने के लिए भारत की सरकार ने अपने रुपए की कीमत को गिराना शुरू कर दिया. 1952 में रुपए की कीमत गिरी. क्या आपको पता है 15 अगस्त 1947 को 1 रुपया 1 डॉलर के बराबर था. एक रूपया एक स्टर्लिंग पाउंड के बराबर था. एक रुपया एक फ्रेंच फ्रेंक के बराबर था. लेकिन 1952 आते-आते 7 रुपया 1 डॉलर हो गया. फिर हमने दुबारा 1997 में कर्ज लिया, फिर 1962 में लिया, फिर 1968 में लिया, फिर 1972 में लिया, 1977 में लिया, फिर 1982 में लिया और 1982 के बाद हर साल कर्ज लेना शुरु कर दिया.

पहले पांच पांच साल में एक बार कर्ज लेते थे फिर 1982 के बाद हर साल 1983 1984 1985 हार साल कर्ज लेना शुरू किया और इस देश में कई – कई प्रधानमंत्री तो ऐसे महानुभाव हुए जिन्होंने पुराने कर्जे का ब्याज देने के लिए नया कर्ज ले लिया.

ऐसे भी प्रधानमंत्री आये इस देश में उन्होंने कर्जो के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए और परिणाम ये  हुआ कि कर्ज बढ़ता गया और 1991 से इस देश में एक नीति चल पड़ी जिसका नाम आप जानते हैं उदारीकरण अंग्रेजी में उसको कहते हैं लिब्रलाइजेशन, हिंदी में उदारीकरण. फिर एक नीति है वैश्वीकरण, ग्लोबलाइजेशन. राजीव भाई ने इस नीति का नाम बदलकर रखा उधारीकर्ण, कर्ज लेना उधार लेना. जितने प्रधानमंत्री आए सब ने अंधाधुंध कर्ज लिया तो आज स्थिति ये है कि बढते बढते कर्ज बहुत अधिक हो गया और इन सरकारों ने और एक काम ये किया कि विदेशी कर्ज तो लिया ही इसके साथ साथ देश के अंदर से भी कर्ज लिया.

इस ग्राफ में देखिए कैसे 1991 के बाद डॉलर का रेट कितनी तेजी से बढ़ा है >>


source: tradingeconomics.com

दोनों तरफ से कर्ज ले ले के विकास करने की नीव डाल दी. सबसे खराब काम हुआ कर्ज लेकर विकास करना. हमारे भारत की परंपरा ये है कि जितनी लंबी चादर उतने लंबे पाँव. अगर हमारे पास कम पैसे हैं तो कम पैसे में ही काम चलाओ, कर्जा ले कर मत चलाओ. लेकिन भारत की सरकारों ने इसका उल्टा कर दिया उन्होंने कहा कि चादर अगर बडी नहीं है तो उधार की चादर ले आओ, तो कर्ज ले ले के देश के ऊपर इस समय लगभग 18 लाख करोड रुपए का विदेशी कर्ज हो गया. और केंद्र सरकार और राज्य सरकार का लगभग 18 लाख करोड़ का ही देशी कर्ज हो गया है इसका मतलब ये कि इस समय हमारा देश 36 लाख करोड़ (2009 तक) के कर्जे में दबा हुआ है

अगर आप हिसाब निकालेंगे तो एक एक हिंदुस्तानी 36 हजार रुपए का कर्जदार है. यह स्थिति हो गई है अब. इसमें परेशानी ये आई कि हमने जिस देश से कर्ज लिया अमेरिका से, जापान से जर्मनी से फ्रांस स्वीडन से स्विट्ज़रलैंड से उन देशो ने हमारे ऊपर शर्तें लगाई उसमे पहले शर्त ये थी कि रुपए की कीमत गिराओ और जिस मुद्रा में कर्ज ले रहे हो उसकी कीमत बढाओ तो इसका परिणाम ये हुआ कि डॉलर की कीमत बढ़ते बढ़ते यहाँ तक आ गई कि जो एक डॉलर 1947 में एक रुपया था वो अब वो 50 रुपया एक डॉलर हो गया है

मतलब ये कि रुपए की कीमत 50 गुनी कम हो गई है. 1947 में एक रुपया एक स्टर्लिंग पाउंड था अब 80 रुपय एक स्टर्लिंग पाउंड हो गया है एक करेंसी आई है जिसका नाम है यूरो डॉलर.  एक यूरो डॉलर 56 रुपया हो गया. दुनिया की सभी करेंसी की तुलना में भारत के रूपये की कीमत गिर गई. हमारे ऊपर शर्त लगी तो हमने वो शर्त मानी. दूसरी शर्त हमारे ऊपर ये आ गई कि जो जो देश से हम कर्ज लेंगे उन्हीं देशों की कंपनियों को भारत में व्यापार करने के लिए बुलाना पड़ेगा.

मलतब ये कि अगर हम अमेरिका से कर्ज लेंगे तो अमेरिका की कंपनियां भारत में आएंगी व्यापार करेंगे उनको लाइसेंस देना ही पड़ेगा. अगर जापान से कर्ज लेंगे तो जापान की कंपनी आएंगे उनको लाइसेंस देना पड़ेगा. जर्मनी से कर्ज लेंगे तो वहां की कंपनियां आएंगी फिर उनको लाइसेंस देना पड़ेगा. भारत की सरकार ने 24 देशों से कर्ज ले रखा है तो हमारे देश में धंधा करने के लिए 24 देशों की 5000 कंपनियां घुस गई.

अब दुख और तकलीफ की बात ये है कि हमने एक ईस्ट इंडिया कंपनी को 100 साल की मेहनत करके मारकर भगाया था और एक कंपनी को भगाने में लाखों शहीदों की कुर्बानी देनी पड़ी थी. करोड़ों हिंदुस्तानियों को अपनी मां-बहन-बेटियों की बेइज्जती सहन करनी पड़ी थी. अब आजादी के बाद देश ऐसे चक्कर में फस गया है कि 5 हजार विदेशी कंपनियां इस देश में आ गयी.

अब इन कंपनियों के आने से फिर नुकसान है. पहले ईस्ट इंडिया कंपनी आई वह माल बेचकर मुनाफा कमाती थी वैसे ये 5 हजार कंपनियां माल बेचकर मुनाफा कमाती है और नुकसान दोहरा हो रहा है. इससे देश को हमारा एक नुकसान तो यह हो रहा है कि रुपए की कीमत जैसे-जैसे गिर रही है उससे बहुत नुकसान होता है.

आपको समझते हैं कैसे देश को नुकसान होता है. 1947 में अगर हम एक रुपए का माल अमेरिका को बेचते थे तो हमको एक डॉलर मिलता था अब 2009 में (यह विडियो 2009 का है) हमको 50 रूपये का माल बेचना पड़ता है तब 1 डॉलर मिलता है माने माल हमारा 50 गुना ज्यादा जाता है और डॉलर हमारे पास एक ही आता है सोचो कितना बड़ा नुकसान है.

इस खेल को समझने के लिए यह विडियो जरुर देखे >>